मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

‘एक रस्म एक रिवाज’

धियाणी कि विदाई ‘एक रस्म एक रिवाज’


विश्व की सबसे लंबी यात्रा नंदा देवी राजजात अपने आप में एक अनोखी यात्रा है। इस यात्रा में जाने वाले लोगों के अनुभव अगली नंदा देवी राजजात तक स्मरण के तौर पर उनके साथ रहेंगे। यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव और प्राकृतिक सौंदर्य यात्रा में प्रतिभाग करने वालों के दिलों को छू गया और वह इसे स्मरण के रूप में लिपिब( कर रहे हैं। यात्रा पर गए युवा आचार्य मनोज प्रसाद मलासी की कलम से नंदा देवी राजजात यात्रा का यह खास आलेख।     संपादक
अचानक एक सपने के टूटते ही नींद खुली तो पता चला कि सुबह के साढ़े पाँच बज चुके हैं और माँ जोर-जोर से दरवाजा पीट रही है कि ‘‘नंदा देवी राजजात यात्रा’’ में चलना है कि नहीं? बड़ी मुश्किल से तन्द्रा टूटी और फिर वह सपना जो मुझे हिमालय की चोटियों पर विचरण और पता नहीं किन-किन यादों और बातों के पीछे भ्रमण करवा रहा था, सब भंग हो गया। खैर! सपना बहुत ही बुरा था, पर जब नींद खुली और नन्दा देवी राजजात यात्रा का पूर्व वृतान्त स्मरण हुआ तो सब बुरे सपनों का साया समाप्त हो गया क्योंकि पिछली रात को इस यात्रा पर खूब बहस हुई थी और बड़ा ही उत्साह था मां नन्दा के दर्शन का। आखिर हो भी क्यों नहीं, आखिर मैंने बचपन के उन दिनों भगवती नंदा के जो दर्शन किये थे, जब बच्चे को खाना-पीना और मस्ती ही नजर आती है। उस समय मैं मात्र दस साल का था, जब उस पराम्बा जगद्जननी के दर्शन हुए थे और मेरे साथ मेरे पिता जी और स्वर्गीय दादीजी जो थी, जिनको मैं अत्यधिक स्मरण कर रहा था। परन्तु यह यात्रा भी मेरे लिए किसी खास दिन से ज्यादा नहीं थी, क्योंकि इस बार मैं अपनी माँ और पिताजी के साथ यात्रा पर जा रहा था। पता नहीं यह खास दिन कैसे आया, क्योंकि अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी ताई जी का निधन जो हुआ था और माँ-पिताजी भी यात्रा में जाने के खिलाफ थे परन्तु मेरी जिद और लेक्चर ने उनका मूढ़ बना दिया और वो तैयार                   हो गये।
यात्रा के लिए प्रस्थान-कुछ गाँव की दीदीजी, भाभीजी और उनके अन्य सहयोगियों के साथ सुबह-सुबह ठण्डी हवा में बुक की गयी मैक्स में बैठकर ठंडी हवाओं का कुछ ज्यादा ही आनन्द आ रहा था। चारों ओर से सनसनाती हवा मानों कानों को गिरिराज हिमालय के अधिपति भोलेनाथ और सर्वशक्तिदायिनी माँ नन्दा का सन्देश और आशीष दे रही हो। उस दिन आसमान में बादल छाये हुए थे और बीच-बीच में हल्की बूँदा-बाँदी केदारनाथ यात्रा का स्मरण करवा रही थी परन्तु माँ के दर्शन की अभिलाषा ने बिलकुल भी उत्साह में कमी नहीं आने दी। जैसे ही गाड़ी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ी तो पिताजी ने बताया कि वहाँ ठंड हो सकती है, जिसका कि हम लोगों ने बिलकुल भी इन्तजाम नहीं किया था किन्तु मुझे तुरन्त ही आइडिया सूझा। मैंने तुरन्त चाचाजी जो कि रुद्रप्रयाग में रहते थे, उनको फोन किया और एक स्वेटर व एक शाॅल मंगवा लिया। अब हम निश्चिन्त होकर मस्ती के साथ आगे बढ़ने लगे। धीरे-धीरे रुद्रप्रयाम जिले के सीमावर्ती गाँवों को छूकर निकलने लगे तो सामने ही ककोड़ाखाल गाँव सहसा दिखाई देते ही स्वर्गीय श्री अनसूया प्रसाद बहुगुणा जी का स्मरण हो आया, जिन्होंने गढ़वाल में बेगार प्रथा के विरु( अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया था और पिताजी उस बेगार प्रथा का उल्लेख करने लगे कि किस प्रकार उस समय के राजा और अंग्रेज मिलकर जनता पर अत्याचार किया करते थे। टिहरी की राजशाही और अंग्रेजों के अत्याचारों का विवरण होते ही मैं भी भावनात्मक रूप से उन लोगों से जुड़ने लगा, जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे। मेरी पूरी सिम्पैथी उन निर्दोष लोगों के साथ थी जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे और श्री बहुगुणा जी मेरी नजरों में हीरो बनने लगे थे।
संगीतमय हो गई यात्रा-धीरे-धीरे आगे बढ़ते ही यात्रा को रोचक व यादगार बनाने के लिए पिताजी ने गढ़वाल के सुप्रसि( गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी जी के माँ नन्दा देवी का प्रसि( गाना ‘‘जै, जै बोला, जै भगोति नन्दा, नन्दा ऊँचा कैलाश की जय’’ गाना प्रारम्भ कर दिया और फिर मुझसे भी रहा नहीं गया और मैं भी स्वर से स्वर मिलाने लगा। गाने के समाप्त होते ही सभी लोग जिन्होंने मुझे पहली बार सुना था, मेरे गले की   तारीफ करने लगे किन्तु ये बातें मेरे लिए अब पुरानी सी थी, क्योंकि कोई भी फटे बाँस की आवाज वाला भी गाना गाये तो सभी लोग टाइमपास करने के लिए अकसर तारीफों के पुल बांधने लगते हैं।
आपदा के घाव अभी भी हरे-धीरे-धीरे हम अपने गन्तव्य की ओर हिचकोले खाते हुए बढ़ रहे थे। मानों हर गड्डा हमें अपने में समाने के लिए बैठा हो। प्रत्येक गड्डे पर गाड़ी के उछलते ही मंै चिढ़कर पिताजी से उत्तराखण्ड शसन-प्रशासन की बात कर रहा था जो कि पिछले दो-तीन सालों से नन्दादेवी राजजात यात्रा के बारे में टी.वी व समाचार-पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से तैयारियों का डंका पीट रहे थे। रुद्रप्रयाग व चमोली जिले में आयी भीषण आपदा के बाद भी सड़कों की हालत पर तरस आ रहा था परन्तु क्या किया जा सकता था। मैं लगातार गाड़ी के स्पीड मीटर पर देख रहा था जो 25-30 किमी की स्पीड से आगे बढ़ने का प्रयत्न कर रहा था परन्तु बार-बार असफल हो रहा था। रुद्रप्रयाग से 32 किमी. की दूरी तय करते ही महादानी कर्ण के शहर और अलकनंदा-पिण्डर के संगम स्थल कर्णप्रयाग पहुँचे। कर्णप्रयाग में प्रवेश करते ही जोशीमठ के हरे सेब व हिमाचल के लाल सेबों को देखते ही मन ललचा गया। फिर क्या था तुरन्त मोलभाव किये और 2 किलो मीठे सेब व केले खरीद लिये। यही आगे की पूरी यात्रा में कारगर साबित हुए।
पिण्डर घाटी में प्रवेश-धीरे-धीरे नारायणबगड़, थराली से होते हुए देवाल पहुँच गये। रास्ते में आपदा के जख्म साफ दिखाई दे रहे थे। कहीं पुराने पुल के स्थान पर नये ट्राली के डिब्बे तो कहीं पुल के दोनों ओर के खम्भे जो किसी नये पुल का इन्तजार कर रहे थे। कहीं नदी के कटाव से खेतों की दुर्दशा। देवाल पहुँचते ही माँ नन्दा के लिए श्रृँगार का सामान व कुछ समौण के लिए मार्केट में इधर-उधर घूमने लगे। जैसे ही देवाल से मुन्दोली के लिए रवाना हुए तो प्रकृति की उस अनुपम छटा ने मन को मोह लिया। लहराती हरियाली, सीढ़ीदार खेत उन खेतों में तोर, कौणी, झंगोरे की फसल, गाड-गदेरे पहाड़ों से बहते झरने तथा सामने सुन्दर नगाधिराज अपनी मनोहर छटा बिखेरे आने वाले दर्शनार्थियों के स्वागत के लिए हर वक्त खड़ा दिखाई दे रहा था। जैसे ही मुन्दोली के निकट पहंँचते ही दूर से गाड़ियों की पंक्तियाँ दिखाई देने लगी, जो हरे-भरे पहाड़ पर सफेद ओंस की बूँद जैसे चमक रही थी। मुन्दोली से पूर्व ही गाड़ियों की लम्बी कतार होने के कारण हम भी उस भीड़ का हिस्सा बन गये जो पूर्व से ही माँ नन्दा के दर्शनार्थ आये हुए थे। जैसे ही हम मुन्दोली की उस भीड़ में पहुँचे तो पता चला कि माँ नन्दा की डोली वाण गाँव के लिए रवाना हो चुकी है।
माँ नंदा के दर्शनों की जद्दोजहद-हमने यात्रा का साक्षी बनने के लिए एक कैमरे का बन्दोबस्त भी कर रखा था परन्तु एक शाॅट लेते ही सेल डैमेज हो गये। फिर क्या था मैं अपने साथियों को छोड़कर बाजार में सेल ढ़ँूढने के लिए इधर-उधर भटकने लगा। आखिर एक दुकान पर मुझे सेल मिल गये। मैंने कैमरे में सेल चढ़ाये, एक दो शाॅट लिए और साथियों को ढ़ूँढ़ने लगा। मैंने पिताजी को फोन करने की कोशिश की, परन्तु नेटवर्क न होने के कारण किसी से सम्पर्क नहीं हो पाया। फिर मैंने एक पाखला ;एक गढ़वाली परिधानद्ध पहने, नाक से सिर के अन्त तक सिन्दूर लगायी अधेड़ उम्र की एक महिला से पूछा कि मुझे माँ नन्दा की डोली के दर्शन करने हैं, उन्होंने मुझे एक पैदल रास्ता बताया जिससे अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। उन्होंने मुझसे कहा कि आपको रास्ते मैं ही माँ की डोली के दर्शन हो जायेंगे।
 फिर क्या था, एक हाथ में कैमरा पकड़े व दूसरे हाथ में छोटा सा जंगमवाणी यन्त्र ;मोबाईलद्ध लिये बार-बार पिताजी को व दूसरे अन्य साथियों को फोन कर उसी रास्ते पर निकल पड़ा,  जिस पर कि अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। मैं बड़ी तेजी से पथ पर बढ़ रहा था तथा जो भी दर्शनार्थी उस रास्ते पर मुझसे मिलते, मैं सभी से डोली के बारे मेें पूछता कि डोली कितनी दूर गयी और वो सभी लोग कहते कि बस थोड़ी दूर मुश्किल से आधा किमी. और मैं बड़े उत्साह से भागने लगता। करीब दो ढ़ाई किमी. पैदल चलने के बाद अचानक 3 लड़कों से मुलाकात हुई, जो राजजात यात्रा को सार्थक बनाने में अपना योगदान दे रहे थे। जैसे ही मैंने उनसे डोली के बारे में पूछा तो वो कहने लगे कि बस कुछ ही दूरी पर जा रही है। मैं भी गप मारते-मारते उनके साथ हो लिया। अचानक पिताजी से सम्पर्क हुआ तो पता चला कि वे सभी गाड़ी से किसी दूसरे स्थान पर पहुँचे चुके हैं।
 मैंने भी अपने कदम तेजी से बढ़ाने शुरू कर दिये तथा उन तीनों सह यात्रियों में से एक लड़का, जिसने अपना नाम प्रमोद पुरोहित बताया, जो कि थराली का रहने वाला था। वह मुझे यात्रा के बारे में विस्तृत से बतला रहा था तथा मैं एक विदेशी यात्री की भांति उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था। यद्यपि उन्होंने मेरे सामान्य ज्ञान बढ़ाने में बहुत मदद की तथा मुझे तब पता चला कि माँ नन्दा की डोली चमोली के अन्तिम गाँव वाण के अन्तर वेदनी बुग्याल से होते हुए पाताल नचोणियाँ, रूपकुण्ड, शिलासमुद्र से इस यात्रा का अन्तिम पड़ाव होमकुण्ड, जो त्रिशूल पर्वत की तलहटी पर स्थित है, के विषय में अनेक कहानियाँ सुनाने लगा, जिससे रास्ता जल्दी जल्दी कटने लगा और उन कहानियों को सुनते-सुनते पता ही नहीं चला कि कब हम अपने साथियों छोड़ और उन घने जंगलों, गदेरों को पार कर गये। गपशप में हम लगभग पाँच साढ़े पाँंच किमी. की दूरी तय कर चुके ही थे कि अचानक मोड़ पार करते ही वह दृष्य, जिसके इन्तजार में मैं अपने साथियों को छोड़कर भटक रहा था।
वह माँ नन्दा साक्षात् रक्त वस्त्र में, अपने सहयोगियों, चेलों व भक्तों के साथ हमारे सामने एक संक्षिप्त विश्राम स्थल में प्रकट हो चुकी थी। हम कृतार्थ हो गये, जीवन धन्य महसूस होने लगा। हमारी वह यात्रा, जिसके लिए इतने वर्षों इन्तजार करना पड़ा था, पल भर में मनोवंाक्षित फल की प्राप्ति हो गयी थी। बस मैंने झट से जूते उतारे और माँ की डोली के सामने गिर पड़ा। उसके बाद कुछ फोटो लेने के लिए दोस्त को बोला और अब फिर अपने साथियों की याद आने लगी क्योंकि यहाँ से न तो किसी का फोन मिल रहा था और न ही उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के बारे में मुझे कुछ खास जानकारी थी। फिर भी मैंने साहस किया और यात्रा के साथ हो लिया। कुछ ही दूर पहुँचा था कि मुझे दूर से कुछ लोग दिखाई दिये जो कि माँ के दर्शनार्थ मार्ग में खड़े थे। बस! देखते ही मुझे अपने पिताजी का कुर्ता-पाजामा पहचान में आ गया और मैंने हाथ हिलाने शुरू कर दिये। उधर से भी मुझे इशारा होते ही मन खुश हो गया जैसे ही मैं पिताजी के नजदीक पहुँचा, पिताजी ने खुशी से गले लगा दिया। जैसे पता नहीं कितने सालों से मिलन हुआ हो! पर खुशी तो थी ही क्योंकि मानो बिछड़ा हुआ हंस जो उन्हें मिल गया था।
तकलीफदेह वापसी-अब सभी साथी मुझे मिल चुके थे शारीरिक थकान भी बहुत ज्यादा हो गयी थी और इन्तजार था तो बस घर जाने का। वो ढालदार रास्ता जिसको पार कर इतनी दूर पहुँचे थे, अब खड़ी चढ़ाई के रूप में तब्दील हो चुकी थी और उसको चढ़ना एवरेस्ट फतह करने के बराबर था। खैर, हमने हिम्मत बढ़ाई और पैदल चलने लगे व रेंगते-रेंगते सड़क में आकर अपनी गाड़ी तक पहुँचने के लिए दूसरी गाड़ी मुन्दोली तक किराये पर ली और फिर अपनी गाड़ी तक पहुँचे। सब लोग बुरी तरह से थक चुके थे और अपने आशियाने तक पहंँचने की जद्दोजहद में थे।
 परन्तु अभी साथ में लाया भोजन बाकी था, जिसको हम जल्द से जल्द निपटाकर कुछ शक्ति का पुनर्जागरण करना चाहते थे। मुन्दोली से 10 किमी. की दूरी को पार करते ही एक चाय की दुकान                  ढ़ूंढ़ी और नाश्ता करते ही थोड़ी सी थकान उतरी। पर अभी भी घर जाने की प्रबल इच्छा थी।                         देवाल से आगे बढ़ते ही रात होने लग गयी थी। ड्राईवर ने गाड़ी की लाई आॅन की और तेजी से घर की और बढ़ने लगे। रास्ते में हम सभी मिलकर कभी-कभार भजन व गाने भी गा लिया करते थे परन्तु थकान व सुस्ती ने सबको बुरी तरह से घेर लिया था।
अट्ठारह घंटे बाद-रात को लगभग साढ़े ग्यारह बजे उनींदी आँखों के साथ घर पहुँचे, तो माँ नंदा के दर्शनों का सारा नशा व यात्रा की थकान गायब होकर एक गुस्से में बदल गई, क्योंकि उसी दिन लंगूरों की फौज ने हमारे घर के फलों के बगीचे को तोड़-मरोड़, चीरफाड़ दिया था पर अब क्या किया जा सकता था। मन मसोसकर रात को 12 बजे खाना बनाकर खाया और धम्म से बिस्तर पर लेट गया और पता ही नहीं चला कि कब गुडाकादेवी ने अपना प्रकोप ढा दिया।

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

‘एक रस्म एक रिवाज’

धियाणी कि विदाई ‘एक रस्म एक रिवाज’


विश्व की सबसे लंबी यात्रा नंदा देवी राजजात अपने आप में एक अनोखी यात्रा है। इस यात्रा में जाने वाले लोगों के अनुभव अगली नंदा देवी राजजात तक स्मरण के तौर पर उनके साथ रहेंगे। यात्रा के दौरान मिले खट्टे-मीठे अनुभव और प्राकृतिक सौंदर्य यात्रा में प्रतिभाग करने वालों के दिलों को छू गया और वह इसे स्मरण के रूप में लिपिब( कर रहे हैं। यात्रा पर गए युवा आचार्य मनोज प्रसाद मलासी की कलम से नंदा देवी राजजात यात्रा का यह खास आलेख।     संपादक
अचानक एक सपने के टूटते ही नींद खुली तो पता चला कि सुबह के साढ़े पाँच बज चुके हैं और माँ जोर-जोर से दरवाजा पीट रही है कि ‘‘नंदा देवी राजजात यात्रा’’ में चलना है कि नहीं? बड़ी मुश्किल से तन्द्रा टूटी और फिर वह सपना जो मुझे हिमालय की चोटियों पर विचरण और पता नहीं किन-किन यादों और बातों के पीछे भ्रमण करवा रहा था, सब भंग हो गया। खैर! सपना बहुत ही बुरा था, पर जब नींद खुली और नन्दा देवी राजजात यात्रा का पूर्व वृतान्त स्मरण हुआ तो सब बुरे सपनों का साया समाप्त हो गया क्योंकि पिछली रात को इस यात्रा पर खूब बहस हुई थी और बड़ा ही उत्साह था मां नन्दा के दर्शन का। आखिर हो भी क्यों नहीं, आखिर मैंने बचपन के उन दिनों भगवती नंदा के जो दर्शन किये थे, जब बच्चे को खाना-पीना और मस्ती ही नजर आती है। उस समय मैं मात्र दस साल का था, जब उस पराम्बा जगद्जननी के दर्शन हुए थे और मेरे साथ मेरे पिता जी और स्वर्गीय दादीजी जो थी, जिनको मैं अत्यधिक स्मरण कर रहा था। परन्तु यह यात्रा भी मेरे लिए किसी खास दिन से ज्यादा नहीं थी, क्योंकि इस बार मैं अपनी माँ और पिताजी के साथ यात्रा पर जा रहा था। पता नहीं यह खास दिन कैसे आया, क्योंकि अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी ताई जी का निधन जो हुआ था और माँ-पिताजी भी यात्रा में जाने के खिलाफ थे परन्तु मेरी जिद और लेक्चर ने उनका मूढ़ बना दिया और वो तैयार                   हो गये।
यात्रा के लिए प्रस्थान-कुछ गाँव की दीदीजी, भाभीजी और उनके अन्य सहयोगियों के साथ सुबह-सुबह ठण्डी हवा में बुक की गयी मैक्स में बैठकर ठंडी हवाओं का कुछ ज्यादा ही आनन्द आ रहा था। चारों ओर से सनसनाती हवा मानों कानों को गिरिराज हिमालय के अधिपति भोलेनाथ और सर्वशक्तिदायिनी माँ नन्दा का सन्देश और आशीष दे रही हो। उस दिन आसमान में बादल छाये हुए थे और बीच-बीच में हल्की बूँदा-बाँदी केदारनाथ यात्रा का स्मरण करवा रही थी परन्तु माँ के दर्शन की अभिलाषा ने बिलकुल भी उत्साह में कमी नहीं आने दी। जैसे ही गाड़ी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ी तो पिताजी ने बताया कि वहाँ ठंड हो सकती है, जिसका कि हम लोगों ने बिलकुल भी इन्तजाम नहीं किया था किन्तु मुझे तुरन्त ही आइडिया सूझा। मैंने तुरन्त चाचाजी जो कि रुद्रप्रयाग में रहते थे, उनको फोन किया और एक स्वेटर व एक शाॅल मंगवा लिया। अब हम निश्चिन्त होकर मस्ती के साथ आगे बढ़ने लगे। धीरे-धीरे रुद्रप्रयाम जिले के सीमावर्ती गाँवों को छूकर निकलने लगे तो सामने ही ककोड़ाखाल गाँव सहसा दिखाई देते ही स्वर्गीय श्री अनसूया प्रसाद बहुगुणा जी का स्मरण हो आया, जिन्होंने गढ़वाल में बेगार प्रथा के विरु( अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन किया था और पिताजी उस बेगार प्रथा का उल्लेख करने लगे कि किस प्रकार उस समय के राजा और अंग्रेज मिलकर जनता पर अत्याचार किया करते थे। टिहरी की राजशाही और अंग्रेजों के अत्याचारों का विवरण होते ही मैं भी भावनात्मक रूप से उन लोगों से जुड़ने लगा, जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे। मेरी पूरी सिम्पैथी उन निर्दोष लोगों के साथ थी जिन्होंने ये अत्याचार सहे थे और श्री बहुगुणा जी मेरी नजरों में हीरो बनने लगे थे।
संगीतमय हो गई यात्रा-धीरे-धीरे आगे बढ़ते ही यात्रा को रोचक व यादगार बनाने के लिए पिताजी ने गढ़वाल के सुप्रसि( गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी जी के माँ नन्दा देवी का प्रसि( गाना ‘‘जै, जै बोला, जै भगोति नन्दा, नन्दा ऊँचा कैलाश की जय’’ गाना प्रारम्भ कर दिया और फिर मुझसे भी रहा नहीं गया और मैं भी स्वर से स्वर मिलाने लगा। गाने के समाप्त होते ही सभी लोग जिन्होंने मुझे पहली बार सुना था, मेरे गले की   तारीफ करने लगे किन्तु ये बातें मेरे लिए अब पुरानी सी थी, क्योंकि कोई भी फटे बाँस की आवाज वाला भी गाना गाये तो सभी लोग टाइमपास करने के लिए अकसर तारीफों के पुल बांधने लगते हैं।
आपदा के घाव अभी भी हरे-धीरे-धीरे हम अपने गन्तव्य की ओर हिचकोले खाते हुए बढ़ रहे थे। मानों हर गड्डा हमें अपने में समाने के लिए बैठा हो। प्रत्येक गड्डे पर गाड़ी के उछलते ही मंै चिढ़कर पिताजी से उत्तराखण्ड शसन-प्रशासन की बात कर रहा था जो कि पिछले दो-तीन सालों से नन्दादेवी राजजात यात्रा के बारे में टी.वी व समाचार-पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से तैयारियों का डंका पीट रहे थे। रुद्रप्रयाग व चमोली जिले में आयी भीषण आपदा के बाद भी सड़कों की हालत पर तरस आ रहा था परन्तु क्या किया जा सकता था। मैं लगातार गाड़ी के स्पीड मीटर पर देख रहा था जो 25-30 किमी की स्पीड से आगे बढ़ने का प्रयत्न कर रहा था परन्तु बार-बार असफल हो रहा था। रुद्रप्रयाग से 32 किमी. की दूरी तय करते ही महादानी कर्ण के शहर और अलकनंदा-पिण्डर के संगम स्थल कर्णप्रयाग पहुँचे। कर्णप्रयाग में प्रवेश करते ही जोशीमठ के हरे सेब व हिमाचल के लाल सेबों को देखते ही मन ललचा गया। फिर क्या था तुरन्त मोलभाव किये और 2 किलो मीठे सेब व केले खरीद लिये। यही आगे की पूरी यात्रा में कारगर साबित हुए।
पिण्डर घाटी में प्रवेश-धीरे-धीरे नारायणबगड़, थराली से होते हुए देवाल पहुँच गये। रास्ते में आपदा के जख्म साफ दिखाई दे रहे थे। कहीं पुराने पुल के स्थान पर नये ट्राली के डिब्बे तो कहीं पुल के दोनों ओर के खम्भे जो किसी नये पुल का इन्तजार कर रहे थे। कहीं नदी के कटाव से खेतों की दुर्दशा। देवाल पहुँचते ही माँ नन्दा के लिए श्रृँगार का सामान व कुछ समौण के लिए मार्केट में इधर-उधर घूमने लगे। जैसे ही देवाल से मुन्दोली के लिए रवाना हुए तो प्रकृति की उस अनुपम छटा ने मन को मोह लिया। लहराती हरियाली, सीढ़ीदार खेत उन खेतों में तोर, कौणी, झंगोरे की फसल, गाड-गदेरे पहाड़ों से बहते झरने तथा सामने सुन्दर नगाधिराज अपनी मनोहर छटा बिखेरे आने वाले दर्शनार्थियों के स्वागत के लिए हर वक्त खड़ा दिखाई दे रहा था। जैसे ही मुन्दोली के निकट पहंँचते ही दूर से गाड़ियों की पंक्तियाँ दिखाई देने लगी, जो हरे-भरे पहाड़ पर सफेद ओंस की बूँद जैसे चमक रही थी। मुन्दोली से पूर्व ही गाड़ियों की लम्बी कतार होने के कारण हम भी उस भीड़ का हिस्सा बन गये जो पूर्व से ही माँ नन्दा के दर्शनार्थ आये हुए थे। जैसे ही हम मुन्दोली की उस भीड़ में पहुँचे तो पता चला कि माँ नन्दा की डोली वाण गाँव के लिए रवाना हो चुकी है।
माँ नंदा के दर्शनों की जद्दोजहद-हमने यात्रा का साक्षी बनने के लिए एक कैमरे का बन्दोबस्त भी कर रखा था परन्तु एक शाॅट लेते ही सेल डैमेज हो गये। फिर क्या था मैं अपने साथियों को छोड़कर बाजार में सेल ढ़ँूढने के लिए इधर-उधर भटकने लगा। आखिर एक दुकान पर मुझे सेल मिल गये। मैंने कैमरे में सेल चढ़ाये, एक दो शाॅट लिए और साथियों को ढ़ूँढ़ने लगा। मैंने पिताजी को फोन करने की कोशिश की, परन्तु नेटवर्क न होने के कारण किसी से सम्पर्क नहीं हो पाया। फिर मैंने एक पाखला ;एक गढ़वाली परिधानद्ध पहने, नाक से सिर के अन्त तक सिन्दूर लगायी अधेड़ उम्र की एक महिला से पूछा कि मुझे माँ नन्दा की डोली के दर्शन करने हैं, उन्होंने मुझे एक पैदल रास्ता बताया जिससे अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। उन्होंने मुझसे कहा कि आपको रास्ते मैं ही माँ की डोली के दर्शन हो जायेंगे।
 फिर क्या था, एक हाथ में कैमरा पकड़े व दूसरे हाथ में छोटा सा जंगमवाणी यन्त्र ;मोबाईलद्ध लिये बार-बार पिताजी को व दूसरे अन्य साथियों को फोन कर उसी रास्ते पर निकल पड़ा,  जिस पर कि अभी-अभी माँ की डोली निकली ही थी। मैं बड़ी तेजी से पथ पर बढ़ रहा था तथा जो भी दर्शनार्थी उस रास्ते पर मुझसे मिलते, मैं सभी से डोली के बारे मेें पूछता कि डोली कितनी दूर गयी और वो सभी लोग कहते कि बस थोड़ी दूर मुश्किल से आधा किमी. और मैं बड़े उत्साह से भागने लगता। करीब दो ढ़ाई किमी. पैदल चलने के बाद अचानक 3 लड़कों से मुलाकात हुई, जो राजजात यात्रा को सार्थक बनाने में अपना योगदान दे रहे थे। जैसे ही मैंने उनसे डोली के बारे में पूछा तो वो कहने लगे कि बस कुछ ही दूरी पर जा रही है। मैं भी गप मारते-मारते उनके साथ हो लिया। अचानक पिताजी से सम्पर्क हुआ तो पता चला कि वे सभी गाड़ी से किसी दूसरे स्थान पर पहुँचे चुके हैं।
 मैंने भी अपने कदम तेजी से बढ़ाने शुरू कर दिये तथा उन तीनों सह यात्रियों में से एक लड़का, जिसने अपना नाम प्रमोद पुरोहित बताया, जो कि थराली का रहने वाला था। वह मुझे यात्रा के बारे में विस्तृत से बतला रहा था तथा मैं एक विदेशी यात्री की भांति उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था। यद्यपि उन्होंने मेरे सामान्य ज्ञान बढ़ाने में बहुत मदद की तथा मुझे तब पता चला कि माँ नन्दा की डोली चमोली के अन्तिम गाँव वाण के अन्तर वेदनी बुग्याल से होते हुए पाताल नचोणियाँ, रूपकुण्ड, शिलासमुद्र से इस यात्रा का अन्तिम पड़ाव होमकुण्ड, जो त्रिशूल पर्वत की तलहटी पर स्थित है, के विषय में अनेक कहानियाँ सुनाने लगा, जिससे रास्ता जल्दी जल्दी कटने लगा और उन कहानियों को सुनते-सुनते पता ही नहीं चला कि कब हम अपने साथियों छोड़ और उन घने जंगलों, गदेरों को पार कर गये। गपशप में हम लगभग पाँच साढ़े पाँंच किमी. की दूरी तय कर चुके ही थे कि अचानक मोड़ पार करते ही वह दृष्य, जिसके इन्तजार में मैं अपने साथियों को छोड़कर भटक रहा था।
वह माँ नन्दा साक्षात् रक्त वस्त्र में, अपने सहयोगियों, चेलों व भक्तों के साथ हमारे सामने एक संक्षिप्त विश्राम स्थल में प्रकट हो चुकी थी। हम कृतार्थ हो गये, जीवन धन्य महसूस होने लगा। हमारी वह यात्रा, जिसके लिए इतने वर्षों इन्तजार करना पड़ा था, पल भर में मनोवंाक्षित फल की प्राप्ति हो गयी थी। बस मैंने झट से जूते उतारे और माँ की डोली के सामने गिर पड़ा। उसके बाद कुछ फोटो लेने के लिए दोस्त को बोला और अब फिर अपने साथियों की याद आने लगी क्योंकि यहाँ से न तो किसी का फोन मिल रहा था और न ही उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के बारे में मुझे कुछ खास जानकारी थी। फिर भी मैंने साहस किया और यात्रा के साथ हो लिया। कुछ ही दूर पहुँचा था कि मुझे दूर से कुछ लोग दिखाई दिये जो कि माँ के दर्शनार्थ मार्ग में खड़े थे। बस! देखते ही मुझे अपने पिताजी का कुर्ता-पाजामा पहचान में आ गया और मैंने हाथ हिलाने शुरू कर दिये। उधर से भी मुझे इशारा होते ही मन खुश हो गया जैसे ही मैं पिताजी के नजदीक पहुँचा, पिताजी ने खुशी से गले लगा दिया। जैसे पता नहीं कितने सालों से मिलन हुआ हो! पर खुशी तो थी ही क्योंकि मानो बिछड़ा हुआ हंस जो उन्हें मिल गया था।
तकलीफदेह वापसी-अब सभी साथी मुझे मिल चुके थे शारीरिक थकान भी बहुत ज्यादा हो गयी थी और इन्तजार था तो बस घर जाने का। वो ढालदार रास्ता जिसको पार कर इतनी दूर पहुँचे थे, अब खड़ी चढ़ाई के रूप में तब्दील हो चुकी थी और उसको चढ़ना एवरेस्ट फतह करने के बराबर था। खैर, हमने हिम्मत बढ़ाई और पैदल चलने लगे व रेंगते-रेंगते सड़क में आकर अपनी गाड़ी तक पहुँचने के लिए दूसरी गाड़ी मुन्दोली तक किराये पर ली और फिर अपनी गाड़ी तक पहुँचे। सब लोग बुरी तरह से थक चुके थे और अपने आशियाने तक पहंँचने की जद्दोजहद में थे।
 परन्तु अभी साथ में लाया भोजन बाकी था, जिसको हम जल्द से जल्द निपटाकर कुछ शक्ति का पुनर्जागरण करना चाहते थे। मुन्दोली से 10 किमी. की दूरी को पार करते ही एक चाय की दुकान                  ढ़ूंढ़ी और नाश्ता करते ही थोड़ी सी थकान उतरी। पर अभी भी घर जाने की प्रबल इच्छा थी।                         देवाल से आगे बढ़ते ही रात होने लग गयी थी। ड्राईवर ने गाड़ी की लाई आॅन की और तेजी से घर की और बढ़ने लगे। रास्ते में हम सभी मिलकर कभी-कभार भजन व गाने भी गा लिया करते थे परन्तु थकान व सुस्ती ने सबको बुरी तरह से घेर लिया था।
अट्ठारह घंटे बाद-रात को लगभग साढ़े ग्यारह बजे उनींदी आँखों के साथ घर पहुँचे, तो माँ नंदा के दर्शनों का सारा नशा व यात्रा की थकान गायब होकर एक गुस्से में बदल गई, क्योंकि उसी दिन लंगूरों की फौज ने हमारे घर के फलों के बगीचे को तोड़-मरोड़, चीरफाड़ दिया था पर अब क्या किया जा सकता था। मन मसोसकर रात को 12 बजे खाना बनाकर खाया और धम्म से बिस्तर पर लेट गया और पता ही नहीं चला कि कब गुडाकादेवी ने अपना प्रकोप ढा दिया।

क्वे सुण दु म्येरि खैरि...

क्वे सुण दु म्येरि खैरि...

उत्तराखंड राज्य बने इतना लंबा समय हो गया, लेकिन राज्य की दशा आज भी नहीं बदली। यही कारण है कि राज्य के लेखकों, पत्रकारों, कवियों और गीतकारों के लिए राज्य पर लिखने गाने के लिए हर बार नया अंदाज होता है। राज्य के उभरते हुए लेखक अश्विनी लक्की भी इन्हीं में शामिल हैं। अपनी लेखनी के लिए इन्होंने गढ़वाली को चुना और गढ़वाली में वह अपने मन की पीड़ा और राज्य के वर्तमान हालात को इसी पर केंद्रित कर लिखते हैं। राज्य की वर्तमान हालात पर केंद्रित अश्विनी गौड़ की गढ़वाली में यह टिप्पणी।            संपादक
सन द्वी हजार मा अपडा आस्तित्व की लडै लणी आखिरकार मैंते अपणि पछाण मिलिग्ये छे, अब लगणू छो कि क्वे म्येरी आॅख्यू का आँसु बि पोन्दी द्यूलू। किले कि अब म्येरा अपडे़ यखा नीति निर्धारक बण्या छा। म्येरा हक हकूक, बौण, पाणी, माटी का नौ पर, अर बोली भाषा का नौ पर कै ल्वोखुन धै लगै छै, अर सैरु जू परांण लगै अपडा खून की तक छ्रवोलि लगै छे, म्येरा बाना, म्येरा जन्म मा तौं शहीदूं कू योगदान तें मे कबि बिसिरी नी सकदु। आज मेंतें पन्द्रू साल लगण वोलू च पर जु स्वीणा मैन बालापन मा दयेख्या, जु गांण्यू का कुट्यारा गंठ्येन सबि बांध्या गे रै गिन। शहीदों का नौं पर खूब हो हल्ला होणू, जु कबि कखि नि छा सी स्याणा बण्या छिन, कितला छा जु यखा सि सर्प बण्या छिन। विकाश का नौं पर यख छोटी बडी के परियोजना बण्नी छिन, म्येरी जिकुडि दिन रात बिकाश का नौ पर क्वोर्योण लग्या छिन, पर मैं बि आखिर यी पिरथ्वी कु ही तत्व छू, म्येरी बि क्वे फिक्स आयतन च, धारिता च, नियम छिन, कानून छिन, पारिस्थ्तिक मजबूरी छिन, जौंका बारा मा यखे सरकार शासन बिल्कुल बि नि स्वोचणी च, बस भरदी जाणा छन मैमा बिकाश की ईट बजरी सीमेंट अर सरिया का जंगल? अप़ड़ा स्वारथ का भारा म्येरी पीठी मा घरदी जांणा छिन। मै बि बिकाश कु पक्षधर छू, अपडूं कु बिकाश चान्दू मुल्क कू विकाश चान्दू, पर कन विकाश चान्दू? ये बारा क्वे नि स्वोचणू च, म्येरी पिडा खैरी यू सबु से ऐच, यख आज यु स्वार्थी मनखी अपड़ा ही स्वार्थ का बारा मा रम्यू च, कखि म्येरा हैरि मखमलि लत्ती कपड़यू कि हैर्यालि उतारी म्येरु बदन नांगू कनू च त कखि गाड गदन्यू कु जु गुलबंद म्येरु पैर्यू, तैकि लड्यू तैं तोडणू च। म्येरु मन अर तन का छाल पवित्र मठ मन्दिरु का बिचारुंमा छकण्या दारु का ठैका ख्वोनू च। म्येरा सीदा-सादा, मुल्क्या मैत्यू सणि यख वोट अर चुनौं का नौ पर लूछणू च, यूंकि सच्चैं अर आस तैं पैसौं मा मुल्यौंणू च? बण जंगल जमीन तै सैर का नौं पर खाली करौणू च।रैणा सैंणा पुंगणा पट्टयू भंगुलू जामणू च, गौं तिबार छज्जा गुठ्यार मनख्यं तें सांेचणी च, जागणी च। स्योंन्दा खांदा पुगया पट्टाळा बाॅजा अर यख मनखि सौ पचास रुपया मनरेगा पर मनू च,  मैना खान बी पी एले किड्या राशन तै जागणू च?यु चैदह सालू मा यखै राजनीति का बि बन बन्या रंग द्येखिन, एक हक्को सुलार खेंचणों अर नांगू कनौं खेल यख खूब फौबि, फली, परम्परा बणि, अर सुलार थामण का चक्करु मा अक्सर आचार संहिता का रिकार्ड बणिन। बीजेपी अर का्रगेस पहाड का नौ पर केंद्र बटि खूब दूघ ल्येन अर द्वियुन खूब मलै चाटी, बचि खुचि यूकेडी अर होरुतें बि बंट्ये गै। राजधानी का मुद्दा पर बि मैं दगडी खूब लुका छुपि खिल्ये गे, म्येरु शरील जू परांण डांड़ी कांठ्यू मा ही बसदू, जु अजु तलक राजधानी गेरसैंण का बाना फफडाणू च। आज पन्द्रह साल मा बि म्येरी बुळाण, संस्कुति, रौण-खाण, लाण का ढंग तैं ये देश का संविधान मा मान्यता नि मिलि। खेर देश त छ्वोडा अपड़े  घौर मुल्क मा पछाण नि मिलि। गढ़वालि कुमाऊँनि बत्यांण वोलु तैं गंवार अनपढ समझ्ये जांदू, बाॅंज बुराश कोदू झांगोरु कि बात कन वौलु तें विकाश कु विरोधी सम्झये जांदू?म्येरा विकाश तैं दिल्ली अर देरादून मा योजना बणाये जांदी पर डाडि कांठ्यू कि उकाळ पौंछिदि पौछिदि तौं तें खलों लगी जान्दू। अर जलागम स्वजल पुनर्विस्थापन, हर्यालि योजना, मनरेगा, जन कति योजनौं कि चार यि द्वी दीन मा ही ट्वडगी पौड़ि जांदिनं यख न्येतू तैं उकाळ उन्द्यार हिटण मा छाति थामण पड़दि, पितर कूड़ि याद ए जांदी। जंै जनता का नौ पर सारा भरोंसा पर, सि बोटा मांग्ण्यां बण्दा, चुनौं जीतण पर बुसपट्ट बिसरी जांदन, बस अपडि सुख सुविधांें की ही मांग कर्दा, हेलिकाप्टरु मा बिटि हाथ हलौंदा? यि हाल बालापन मा छिन म्येरा त फ्येर ज्वानी मा क्या होला । तबे त ब्वनू, क्वे सुण दु म्येरी खैरी, क्वे गण दु म्येरा दुख
क्ख होलु सु ख्न दगड्या कख् मिललू यनु गैल्या----------           ;दानकोट- बसुकेदार, अगस्तमुनि, रूद्रप्रयागद्ध

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

udaydinmaan: शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन

udaydinmaan: शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन: उत्तराखंड के चारधामः शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन उत्तराखण्ड के सुप्रसि( चारधामों से देव-डोलियाँ शीतकाल के लिए अपने विश्राम स्थलों म...

रविवार, 7 दिसंबर 2014

शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन

उत्तराखंड के चारधामः शीतकालीन गद्दीस्थलों में देवदर्शन

उत्तराखण्ड के सुप्रसि( चारधामों से देव-डोलियाँ शीतकाल के लिए अपने विश्राम स्थलों में पहुंच गयी है। अब शीतकाल के छः माह इन्हीं धामों में भगवान बद्री विशाल, बाबा केदार, मां गंगा और मां यमुना की विधिवत पूजाएं सम्पादित हो रहीं हैं। प्राचीन धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन पवित्र धामों की पूजाएं मानव तथा देवताओं द्वारा बारी-बारी से की जाती हैं। इसलिए छः माह के अंतराल के बाद पूजाओं का क्रम परिवर्तित कर दिया जाता है। एक दूसरे के साथ तारतम्य बना रहे इसलिए उत्सव मूर्तियाँ मुख्य मंदिरों से शीतकालीन गद्दीस्थल में लाई जाती है जिससे मानवों को अपने आराध्यों को पूजने और देखने का अवसर प्राप्त होता है। डोलियों के अपने विश्राम स्थलों पर पहुंचने के साथ ही शीतकालीन चार धाम यात्रा की विधिवत शुरूआत हो चुकी है। चारधाम यात्रा के साथ यहां पर्यटन की दृष्टि से भी शीतकालीन यात्रा को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी पर केंद्रित दीपक बेंजवाल का यह विशेष आलेख।                  संपादक





उत्तराखंड के चारधामों के कपाट बंद होने के बाद शीतकालीन गद्दीस्थल भी चारधामों की तरह ही पवित्र और गहरी लोकमान्यताओं से जुड़े हैं। धर्मग्रन्थों में इन शीतकालीन गद्दीस्थलों की महत्ता का सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है। छः माह के प्रवास में यही गद्दीस्थल मुख्य मंदिर की तरह आस्था की पवित्र डोर को प्रवाहित करते रहते है।आपदा की दृष्टि से भी शीतकाल में यात्रा बरसात के महीनों से अधिक सुरक्षित माना जा रहा है। अधिकतर गद्दीस्थल उच्च हिमालयी क्षेत्र से पर्याप्त दूरी पर है अंौर पूरे वर्षभर यहाँ मानवीय आबादी निवास करती है। सरकार यातायात तथा आवास की अच्छी व्यवस्था करें तो तीर्थयात्रियों को आकर्षित किया जा सकता है। पर्यटन की दृष्टि से भी यह समय पर्यटकों को खासा आकर्षित करता है। बाबा केदार के शीतकालीन गद्दीस्थल ऊखीमठ को छोड़कर अन्य गद्दीस्थलों में बर्फवारी का आंनद भी लिया जा सकता है।
ऊखीमठ में श्री केदारनाथ-ऊखीमठ बाबा केदार का शीतकालीन गद्दीस्थल है। रूद्रप्रयाग जिला मुख्यालय से महज 30 किमी की दूरी पर स्थित इस स्थान की खूबसूरती देखते ही बनती है। धार्मिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं को अपने आँचल में समेटे केदारघाटी के मध्य हिमालयी भू-भाग में बसा ऊखीमठ अनादिकाल से साधना एवं आस्था का केन्द्र रहा है। यह स्थान जहाँ धर्मिक गाथाओं से ओतप्रोत है, वहीं प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण होने के कारण मनोहारी भी है। ऊखीमठ नागपुर परगने के मल्ला कालीफाट में मन्दाकिनी के बायें तट पर एक ऊँची पहाड़ी की गोद में    1311 मीटर ऊँचाई पर बसा है। बाणासुर की कन्या ऊषा की तपस्थली होने के कारण ही इसे ऊषामठ कहा गया। ऊषा का गढ़वाली भाषा में उच्चारण ऊखा और इसी कारण से ऊषामठ ऊखामठ अर्थात वर्तमान में ऊखीमठ नाम से प्रसि( है। शीतकाल के छः माह भगवान केदारनाथ का पूजा-अर्चना ऊखीमठ के आंेकारेश्वर मन्दिर में की जाती है। यही पर रावलों का भव्य निवासगृह एवं श्री बदरीनाथ केदारनाथ मन्दिर समिति का कार्यालय भी मौजूद है। वैदिक साहित्य में ऊखीमठ का एक नाम मान्धाता भी है। स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के 19 वें अध्याय के कुवलाशव के वंश वर्णन के श्लोक संख्या एक से छह में सतयुग के महाप्रतापि राजा कुवलाशव की पांचवी पीढ़ी में यौवनाश्व नाम से मान्धता वर्णन मिलता है। माँ की कोख से पैदा न होने के कारण बालक का नाम    मान्धाता रखा
गया। समय रहते मान्धाता चक्रवती सम्राट बना और सुखपूर्वक गृहस्थ आश्रम के उपरांत हिमालय की गोद में आकर ऊखीमठ में भगवान शंकर की तपस्या में लीन हो गया। राजा मांधता की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें ओंकारेश्वर रूप में दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। जिस पर राजा मांधता बोले की प्रभु आपको विश्व कल्याण व भक्तों के उ(ार के लिए यहीं निवास करना होगा। तब से लेकर वर्तमान समय तक भगवान शंकर यहीं पर आंेकारेश्वर रूप में तपस्यारत हंै। इसी कारण इस स्थान को मान्धता नाम से भी जाना गया है। आज भी केदारनाथ की बहियों का प्रारंभ जय मान्धता से होता है।
पूजा व्यवस्था- ओंकारेश्वर मंदिर में प्रातः एवं सांयकालीन पूजाए होती है। प्रातःकाल में भगवान का जलाभिषेक व श्रृगांर किया जाता है। जबकि सायं को आरती की जाती है। मंदिर का पुजारी केदारनाथ के रावल द्वारा नियुक्त दक्षिण भारतीय लिंगायत होता है।
 तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए मंदिर समिति के वेदपाठी व आचार्य भी यहाँ तैनात होते है।
कैसे पहुंचे - देश की राजधानी दिल्ली से ऊखीमठ की दूरी 405 किमी है। दिल्ली से हरिद्वार, )षिकेश, देवप्रयाग,  रूद्रप्रयाग होते हुए ऊखीमठ पहुंचा जा सकता है। नगर से एक छोटी सड़क मुुख्य मंदिर को जाती है।
जाश्षीमठ-पाण्डुकेश्वर में श्री बदरीनाथ-जोशीमठ-पाण्डुकेश्वर भगवान बद्रीविशाल का शीतकालीन गद्दीस्थल है। नवम्बर माह में बदरीनाथ के कपाट बंद होने पर भगवान कुबेर व उ(व जी चलविग्रह मूर्तियाँ शीतकालीन पूजा के लिए पाण्डुकेश्वर लायी जाती है। जबकि शंकराचार्यजी की गद्दी को जोशीमठ के नृसिंह मंदिर में रखा जाता हैं। मंदिरों के हर प्राचीन शहर की तरह जोशीमठ भी ज्ञानपीठ है जहाँ आदि गुरू शंकराचार्य ने भारत के चार मठों के पहले मठ ‘ज्योर्तिमठ’ की स्थापना की। यहीं उन्होंने शंकर भाष्य ग्रंथ की रचना की जो सनातन धर्म के  सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक   है। पैनखंडा परगना मंे समुद्रतल से साढ़े छह हजार फीट की       ऊँचाई पर स्थित जोशीमठ के कण-कण   में आध्यात्मकिता की छाप मिलती है। भगवान विष्णु से इस नगरी का संबध पुराकल से अनेक दुर्लभ मान्यताए लिए है।   नगर के बीचों-बीच    स्थित नृसिंह मंंिदर         वैष्णव सभ्यता   का प्रमुख तीर्थ  है। नृसिंह       मंदिर में
भगवान विष्णु शालीग्राम शिला में श्यामल व सुखासन में बैठी मुद्रा में है। नृसिंह को विष्णु का अवतार माना जाता है। जिन्हें दूधाधारी नृसिंह के नाम से भी जाना जाता है। पाण्डुकेश्वर अलकनन्दा के पावन तट पर बसा हुआ प्रमुख धार्मिक तीर्थ है। यहाँ भगवान बदरीविशाल साक्षात योगध्यान अवस्था में विराजमान हंै। शीतकाल में भगवान बद्रीनाथ के प्रतिनिधि उ(व जी एवं कुबेर जी                                 चलविग्रह मूर्तियाँ यहाँ लाई जाती हंै, जिससे मंदिर के दर्शनों का फल दुगणित हो जाता है। मंदिर                        सालभर खुला रहता है, यहाँ डिमरी ब्राह्मणों द्वारा नियमित पूजाए की जाती है। तिब्बत-चीन सीमा के कारण यह सीमांत के व्यापार का पुराना                               परम्परागत बाजार होने के साथ-साथ बदरीनाथ, औली तथा नीति घाटी का केन्द्र बिन्दु होने के कारण जोशीमठ एक महत्पूर्ण पर्यटन स्थल है,                                     जहाँ वर्षभर पर्यटकों का जमावाड़ा लगा रहता है। शीतकाल में जोशीमठ के नजदीक स्थित                                           ‘औली’ में अन्र्तराष्ट्रीय स्तर की विंटर गेम्स ‘हिमक्रिड़ाएँ’ आयोजित की जाती हैं।                                             इस दृष्टि से भी जोशीमठ शीतकालीन यात्रा की संभावनाओं में सबसे अधिक आय वाला                        स्थान बन सकता है।
कैसे पहुंचे -जोशीमठ-पाण्डुकेश्वर पहुंचने के लिए दिल्ली से सड़क द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। इस स्थान पर रहने, खाने की अच्छी सुविधाए उपलब्ध हैं।
मुखबा ;मुखवासद्ध गांव में माँ गंगा-मुखबा गाँव जिसे मुखवास गांव भी कहते हैं, हिन्दुओं के लिए बड़ा धार्मिक महत्व रखता है। शीतकाल में माँ गंगा की भोगमूर्ति को इस गाँव में लाया जाता है। मुखबा में गंगोत्री मंदिर जैसा ही मंदिर निर्मित है। यह गांव में गंगोत्री धाम के तीर्थपुरोहितों का मूल गांव भी है, और वही इस मंदिर में माँ गंगा की नियमित पूजाए सम्पादित करते है। लंबे समय से तीर्थ पुरोहित मुखबा गांव को शीतकालीन यात्रा से जोड़ने की मांग करते रहे है। लेकिन इस दिशा में कभी ठोस प्रयास हुए ही नहीं है। बीते वर्ष उत्तरकाशी से हर्शिल होते आठ किमी की कच्ची सड़क काटी गई है। जिस पर वाहन चलाना जोखिम भरा है। इस मार्ग के उपयोग के लिए स्थानीय टैक्सी चालकों की मदद लेनी आवश्यक है। दिसम्बर के अंत तक मुखबा को जाने वाली यह सड़क पूरी तरह बर्फ से ढक जाती है। जिससे आवाजाही बिल्कुल ठप्प हो जाती है। गांव में आवास, भोजन, बिजली व संचार जैसी बुनियादी सुविधाए अभी भी कामचलाऊ हालत में है जिन्हें सुधारे जाने की आवश्यकता है। मुखबा के पास धराली और हर्षिल दर्शनीय स्थल है।
कैसे पहुंचे- जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से 75 किमी और )षिकेश से 180 किमी0 की दूरी तय कर मुखबा गांव पहुंचा जा सकता है। हर्षिल तक सड़क अच्छी हालत में है। हर्षिल से आठ किमी की कच्ची सड़क मुखबा को जोड़ती है।
खरसाली गांव में माँ यमुना-खरसाली माँ यमुना का शीतकालीन प्रवास है, जिसे ‘खुशीमठ’ भी कहा जाता है। यमुना जी के तट पर बसे खरसाली गांव को माँ यमुना का मायका भी माना जाता है जहाँ उनके भाई शनि देव का मंदिर भी है। यह गांव यमुनाजी के पुरोहितों का गांव है जो यमुनोतरी और खरसाली में माँ यमुना की पूजाए सम्पादित करते हंै। गांव में दो मुख्य मंदिर है पहला शनि देव का है, जो उत्तराखण्ड का इकलौता शनि मंदिर है। किलेनुमा परम्परागत पहाड़ी शिल्प में बने 16 कमरों वाले चार मंजिले मन्दिर में शनि देव की चल मूर्ति की पूजा अर्चना की जाती है। गांव में एक अन्य छत्र शैली का मन्दिर भी है जहाँ शनि देव की डोली रखी जाती है। यहाँ एक शिला के रूप में शनि देव की अचल मूर्ति भी स्थापित है। शनि तीर्थ के पुजारियों तथा शनि अष्टक जैसे प्राचीन ग्रंथों पर विश्वास करें तो यहां तीन दिन पूजा अर्चना करने से शनिदेव भक्तों को कष्टों से छुटकारा दिला देते हैं। दशरथ कृत शनि अष्टक के पांचवे श्लोक में कहा गया है कि ‘प्रयाग कुले यमुना तटे वा सरस्वती पुण्य जले गुहाय, यो योगिनां ध्यान गतो अपि सूक्ष्म तस्मे नमः श्री रवि नन्दनाय’।
 सावन संक्रान्ति को खरसाली में तीन दिवसीय शनि देव मेला लगता है, मन्नत पूरी होने पर श्र(ालु शनि देवता की डोली को चारधाम यात्रा पर भी लेकर जाते है। एक मंदिर माँ यमुना का है जहाँ यमुनाजी की भोग मूर्ति स्थापित की जाती है। जिसके                           पुजारी यमुनोत्री मंदिर के रावल हंै। माँ यमुना के शीतकालीन प्रवास के साथ-साथ राज्य के इकलौते शनि मंदिर के कारण वर्षभर श्र(ालु यहाँ आते रहते है। यमुना जी की घाटी में बसा यह क्षेत्र                           प्राकृतिक सुंदरता का खजाना लिए है। यदि शासन-प्रशासन इसका उचित प्रचार-प्रसार करें तो यात्री और बड़ी संख्या में पर्यटक व श्र(ालु यहां पहुंच सकते हैं।
कैसे पहुंचे - हरिद्वार से बाया )षिकेश होते बड़कोट, जानकीचट्टी होते हुए 222 किमी का सफर कर खरसाली पहुंचा जाता है। एक दूसरा रास्ता देहरादून-मसूरी-नैनबाग-बड़कोट होते हुए भी है। इस मार्ग से विश्वप्रसि( पर्यटक स्थल मसूरी के भी दर्शन किए जा सकते हैं।

पाण्डुकेश्वर में यज्ञोपवीत, त्रियुगीनारायण
में विवाह

 शीतकाल पर्यटन एवं चार धाम यात्रा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उत्तराखण्ड सरकार ने लुभावने धार्मिक पैकेज घोषित करने जा रही है। आॅफ सीजन में भगवान बदरीविशाल के दर्शन को आने वाले यात्रियों के लिए पाण्डुकेश्वर मंदिर में यज्ञोपवीत संस्कार व बाबा केदार के दर पर मत्था टेकने वालों के लिए त्रियुगीनारायण मंदिर में विवाह संस्कार की मुफ्त सुविधा मुहैया करवाई जायेगी। इस धार्मिक पैकेज की खासियत यह है कि ये संस्कार बदरीनाथ व केदारनाथ मंदिर के धर्माधिकारियों व वेदपाठियों की मौजूदगी में होंगे जिनका आयोजन श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति करेगी। इसके अलावा गंगोत्री व यमुनोत्री की शीतकालीन यात्रा के धार्मिक पैकजों पर भी विचार-विमर्श किया जा रहा है ताकि धार्मिक संस्कारों के रियायती पैकेज की डोर भक्तों को देवभूमि की ओर खीच सकें। धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु के धाम में यज्ञोपवीत ;जनेऊद्ध संस्कार का काफी महत्व होता है, लिहाजा शीतकाल में बदरीविशाल के दर्शन को आने वाले भक्तों के लिये पाण्डुकेश्वर स्थित योगधाम बदरी मंदिर में इस महत्वपूर्ण संस्कार को मुफ्त करने का प्रस्ताव रहेगा। जबकि बाबा केदार के भक्तों को केदारघाटी में स्थित त्रियुगीनारायण मंदिर में विवाह संस्कार का निशुल्क धार्मिक पैकेज उपलब्ध करवाया जायेगा। दरअसल धार्मिक मान्यता है कि त्रियुगीनारायण मंदिर में ही त्रेतायुग में भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। विवाह के दौरान देवताओं ने अपनी शक्ति से वेदी में विवाह अग्नि पैदा की थी जो आज भी प्रज्जवलित है। इसी कारण मंदिर में विवाह बधंन में बंधना अति शुभ व सौभाग्य माना जाता है।

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

उठाणों वक्त ऐगो...

उठा जागा उत्तराखंडियो, सौं उठाणों वक्त ऐगो...


उत्तराखंड राज्य के लिए यह गौरव की बात है कि उत्तराखण्डी लोकगीतों के सर्वशिरोमणि श्री नरेन्द्र सिंह नेगी पद्म पुरस्कार के लिए चयनित नहीं हुआ यह क्यों आज कोई बता दे क्या उनकी साधना में कोई कमी रह गई यहा फिर कुछ ओर?
उत्तराखंड के लिए उनके योगदान को आज भूला नहीं जा सकता है क्योंकि उन्होंने सामाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे शराब, भ्रष्टाचार, बलिप्रथा, अंधविश्वास जैसे मुद्दों पर कई गीत लिखे और इनको समाज से समूल उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। पर्वतीय प्रदेश होने के नाते उत्तराखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन और जल, जंगल और जमीन की रक्षा हेतु नेगी जी ने अपने विभिन्न गीतों के माध्यम से समय समय पर लोगों तक सदेंश पहुंचाया। उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी समस्या ष्पलायनष् और उससे होने वाले दर्द को नेगी जी ने जिस आत्मीयता और भावों से अपने गीतों के माध्यम से उकेरा और लोगों तक पहुंचाया उसे कोई विरला ही कर सकता है। अलग प्रांत उत्तराखण्ड की मांग में उठा उत्तराखण्ड आंदोलन भी नेगी जी के गीतों से अछूता नहीं रहा.. क्यों भूल गये क्या ष्उठा जागा उत्तराखंडियो, सौं उठाणों वक्त ऐगो...ष् और ष्भैजी कख जाणा छा तुम लोग, उत्तराखंड आंदोलन मा...ष् गीतों को जो उस दौरान बच्चों बच्चों की जुबान पर रहते थे। इतना ही नहीं उस समय उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा आदोंलनकारियों के दमन और बर्बरता के विरोध में नेगी जी ने हर उत्तराखण्डी की भावनाओं और दुख को ष्तेरा जुल्मों कौ हिसाब चुकौंल एक दिन...ष् गीत के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया।
बता दें कि उत्तराखण्डी लोकगीतों के सर्वशिरोमणि नरेन्द्र सिंह नेगी जिनका नाम लिये बिना आज उत्तराखण्डी गीत और संगीत का परिचय अधूरा है, ने सन् 1974 में गढ़वाली लोकगीत और स्वरचित गीत गायन प्रारंभ किया था। वर्ष 1978 में उनकी गीतयात्रा आगे बढ़कर आकाशवाणी लखनऊ और आकाशवाणी नजीबाबाद के माध्यम से लोगों के दिलों तक पहुंचने लगी। ये वो समय था जब रेडियो ट्रांजिस्टर का प्रयोग अपने चरम पर था और उत्तरप्रदेश का यह पर्वतीय क्षेत्र अपनी कई समस्याओं से जूझ रहा था। ऐसे में श्री नेगी जी ही थे जिन्होने सामाजिक मुद्दों को उठाकर हम पहाड़ी लोगों के अन्दर सोये हुये उदासीनता के पहाड़ को जगाना शुरु किया।
नेगी जी ने सामाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे शराब, भ्रष्टाचार, बलिप्रथा, अंधविश्वास जैसे मुद्दों पर कई गीत लिखे और इनको समाज से समूल उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया। पर्वतीय प्रदेश होने के नाते उत्तराखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन और जल, जंगल और जमीन की रक्षा हेतु नेगी जी ने अपने विभिन्न गीतों के माध्यम से समय समय पर लोगों तक सदेंश पहुंचाया। उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी समस्या ष्पलायनष् और उससे होने वाले दर्द को नेगी जी ने जिस आत्मीयता और भावों से अपने गीतों के माध्यम से उकेरा और लोगों तक पहुंचाया उसे कोई विरला ही कर सकता है। अलग प्रांत उत्तराखण्ड की मांग में उठा उत्तराखण्ड आंदोलन भी नेगी जी के गीतों से अछूता नहीं रहा.. क्यों भूल गये क्या ष्उठा जागा उत्तराखंडियो, सौं उठाणों वक्त ऐगो...ष् और ष्भैजी कख जाणा छा तुम लोग, उत्तराखंड आंदोलन मा...ष् गीतों को जो उस दौरान बच्चों बच्चों की जुबान पर रहते थे। इतना ही नहीं उस समय उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा आदोंलनकारियों के दमन और बर्बरता के विरोध में नेगी जी ने हर उत्तराखण्डी की भावनाओं और दुख को ष्तेरा जुल्मों कौ हिसाब चुकौंल एक दिन...ष् गीत के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया। होते करते उत्तराखण्ड बना, नये राज्य के निर्माण के बाद नेगी जी ने पुनरू उत्तराखण्डियों को जागृत किया और अपने गीतों के माध्यम से सभी पहाड़ी भाई-बन्धुओं को मिलजुल कर भाईचारे और एकता से रहने का संदेश दिया।
नेगी जी ने जब देखा कि विकास के जिन स्वर्णिम स्वप्नों के साथ नये राज्य का सृजन किया गया था वे भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद के पाटों के बीच पिसती जा रहें हैं, तो उन्होने अपने गीतों के माध्यम से हमें सत्ता और राजनैतिक गलियारों के अन्दर की वास्तविकता और कई अपसंस्कृतियों से अवगत कराया.. और फिर उसके बाद पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा ष्सब्बि धाणि देहरादूण..ष्, चुनाव के समय मतदाताओं से सचेत रहने की अपील ष्हाथन हुसकी पिलाई, फूलन पिलाई रम..ष्, नेताओं की महत्वाकांक्षांयें ष्नेता बणि दिखोलू रे.. ष् और उसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री पर व्यंग्य ष्कलजुगी औतारी रे नौछमी नारैणा...ष्, योजनाओं में भ्रष्टाचार और कमीशन का खेल ष्अब कतगा खैल्योष् जैसे गीतों से कई बार जनता-जनार्दन को कुंभकरणी नींद से जगाने का प्रयास किया.लेकिन उनके प्रयासों में कमी रह गई.. हमने उनके गीतों पर सीटियां और तालियां तो बहुत बजायी.. डांस भी बहुत किया... लेकिन हम उत्तराखण्डी ना तो उनके गीतों का मर्म समझ सके और ना उन गीतों की वेदना.. ना तो पलायन रूका ना गलियों मुहल्लों मे पनपती राजनीति और उससे होने वाले आपसी द्वेष... ना शराबखोरी, ना भ्रष्टाचार, ना लोगों में प्रेम भाईचारा स्थापित हो पाया और ना हक-हकूक की लड़ाई के लिये आवाज बुलंद करने की हिम्मत..
26 जनवरी पर दिये जाने वाले पद्म सम्मान के लिये इस बार जो सात नाम भारत सरकार को भेजे गये हैं, उनमें पहाड़ के सबसे बड़े गायक नरेंद्र सिंह नेगी जी का नाम नहीं है। इस सूची में ऐसे-ऐसे नाम हैं जिनकी संस्तुति पहले भी कई-कई बार की जा चुकी है। अब पद्म पुरस्कार की बात चली है तो एक बात और बता दूं की वर्ष 1970 में जन्मे नवाब साहब उस समय ए, बी, सी, डी सीख रहे थे जब नेगी जी ने सन् 1974 में गढ़वाली लोकगीत गाना प्रारंभ किया था... जब नवाब साहब की कई फिल्में एक के बाद एक करके पिट रही थी उस समय श्री नेगी जी अपने गीतों से लोगों को जागृत कर रहे थे... बात केवल नवाब साहब की नहीं है फेहरिस्त बहुत लम्बी है.. नेगी जी के व्यक्तित्व और उनकी पहचान के आगे सभी पुरस्कार बहुत छोटे हैं और ऐसा नहीं है कि पद्म पुरस्कार से नेगी जी का कद बहुत ऊंचा हो जायेगा, लेकिन नेगी जी उन लोगों में से हैं जिनके हाथों में पहुंचने के लिये पद्मश्री, पद्मभूषण एवं पद्म विभूषण जैसे पुरस्कार बनाये जाते हैं।
हालांकि नरेंद्र सिंह नेगी जी ने पहाड़ की संस्कृति के लिये इतना काम किया है ।
Vinay KD, Dehradun
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चित्र साभार : श्री कुम्मी घिल्डियाल जी, नई टिहरी
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उत्तराखंड सरकार और हड़ताल

क्या होगा हमारे राज्य का?

राज्य के कर्मचारियों की हैं बेहद अजीबो-गरीब मांगें
राज्य के बनने से व्यक्तिगत और सामूहिक लाभ के हकदार कर्मचारी
फिर हफ्ते में एक दिन अधिक काम करने पर आक्रोश कैसा?
सबको रोगमुक्त करने वाले डाक्टर पहाड़ चढ़ने के नाम पर हो रहे हैं स्वयं रोगी
14 सालों में शिक्षकों के ट्रान्सफर की नीति तक फाइनल नहीं
कलेक्ट्रेट में नौकरी करने के आधार पर कुछ लोग नायब तहसीलदार बनना चाहते हैं !
फिर परीक्षा की तैयारी के बजाय कलेक्ट्रेट में नौकरी की जुगत लगाना ज्यादा मुफीद कदम है!

उत्तराखंड राज्य बनने से लेकर अब तक राज्य में यह क्या हो रहा है यहां के आम उत्तराखंडियों के समझ से शायद परे है। इसके पीछे कारण स्पष्ट है कि राज्य के लिए आंदोलन सभी ने किया और इसका फायदा लेने वालों की लिस्ट कुछ खास लोगों की। अन्य आंदोलनकारी कहां गए और वह क्यो लिस्ट में अपना नाम दर्ज नहीं करवाना चाहते हैं। जबकि राज्य के सभी विभागों के कर्मी आज जब भी आंदोलन करते हैं तो खुद को सार्वजनिक मंचों से राज्य आंदोलनकारी बताते हैं। सरकार भी उनके सामने घुटने टेक देती है और उनकी अजीबो-गरीब मांगों को मांग लेती है। फिर प्रश्न आता है कि आम उत्तराखंडी कहां है और वह क्यों चुप हैं। शायद वह इसलिए कि राज्य बनने के इतने वर्षों बाद भी जब राज्य के निर्माण के पीछे का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ तो चुप्पी साधने में ही भलाई है। क्योंकि राजनीति के कुचक्र में वह पीसना नहीं चाहते हैं? राज्य के कर्मचारियों की बेतुकी और अजीबो-गरीब मांगों और वर्तमान सरकार की नीतियों पर इंद्रेश मैखुरी का यह विशेष आलेख।     संपादक 
गलत आदमी की सही बात को मानना लोगों के लिए उतना ही मुश्किल होता है, जितना सही आदमी की गलत बात को हजम करना। उत्तराखंड में कर्मचारियों की हड़ताल के मामले में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत की स्थिति भी ऐसी ही है, जैसी गलत आदमी की सही बात कहने पर होती है। यह सही बात है कि आये दिन होने वाली कर्मचारियों की हडतालों में जो मांगें हैं, वे बेहद विचित्र हैं। पर हरीश रावत उन पर ऊँगली उठाने के लिए सही व्यक्ति नहीं हैं। अब देखिये सचिवालय के कर्मचारी इसलिए हड़ताल पर उतर आये हैं क्यूंकि राज्य सरकार ने सचिवालय में 5 दिन के कार्यदिवस के बजाय 6 दिन का कार्यदिवस कर दिया। इस आदेश के खिलाफ सचिवालय के कर्मचारियों का हड़ताल पर उतरना बेहद विचित्र है। जब पूरे प्रदेश में कर्मचारी हफ्ते में 6 दिन काम करते हैं तो सचिवालय में ही कर्मचारियों को 5 दिन क्यूँ काम करना चाहिए?और यदि कार्यदिवस 5 दिन के बजाय 6 हो गए तो ऐसा होना कर्मचारी विरोधी कैसे है?आम तौर पर ऐसे मौकों पर कर्मचारी लोग उत्तर प्रदेश का उदाहरण देने लगते हैं। लेकिन यदि उत्तर प्रदेश ही नजीर है तो अलग राज्य की जरुरत ही क्या थी?उत्तराखंड यदि उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा होता तो अपने निजी वाहनों पर ‘सचिवालय’ लिखवाने वालों और सचिवालय कर्मी होने के नाते स्वयं को विशेषाधिकार संपन्न समझने वालों में से कितने इस स्थिति में होते?यह अलग राज्य बनने का ही प्रतिफल है कि कर्मचारियों की अच्छी-भली संख्या राज्य सचिवालय में पहुँच सकी। बेशक राज्य बनने में कर्मचारियों का भी योगदान है, परन्तु राज्य बनने का लाभ भी तो उनके हिस्से में आया है। तो फिर जिस राज्य के बनने से व्यक्तिगत और सामूहिक लाभ के हकदार कर्मचारी हुए, उस राज्य के लिए हफ्ते में एक दिन अधिक काम करने पर आक्रोश कैसा?
ऐसा नहीं है कि ऐसी विचित्र मांग,सिर्फ सचिवालय कर्मियों की ही है। इससे पहले कलेक्ट्रेट के मिनिस्टीरियल कर्मचारियों ने 50 दिन के करीब हड़ताल की। उनकी प्रमुख मांगों में से एक मांग यह थी कि कलक्ट्रेट के मिनिस्टीरियल कर्मचारियों को नायब तहसीलदार के पदों पर दस प्रतिशत पदोन्नति दी जाए। यह बेहद अजीबो-गरीब है। एक तरफ युवा बेरोजगार रात-दिन एक करके लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास करके नायब तहसीलदार के पदों पर नियुक्ति के योग्य हो पायेंगे और दूसरी तरफ बिना कोई परीक्षा दिए सिर्फ कलेक्ट्रेट में नौकरी करने के आधार पर कुछ लोग नायब तहसीलदार बनना चाहते हैं ! उत्तराखंड राज्य बनने के बाद नायब तहसीलदार नियुक्त होने वाले तमाम लोग आज एस.डी.एम. और ए.डी.एम.जैसे पदों तक पहुँच चुके हैं। यह अलग तरह का सरकारी गोरखधंधा है तो इस तरह देखें मिनिस्टीरियल कर्मचारी नायब तहसीलदार होकर एस.डी.एम.,ए.डी.एम. भी हो जायेंगे। तो फिर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के बजाय कलेक्ट्रेट में नौकरी की जुगत लगाना ज्यादा मुफीद कदम है! उक्त दोनों ही हड़तालें उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा सरकार को हड़ताली कर्मचारियों पर एस्मा ;म्ेेमदजपंस ेमतअपबमे उंपदजंपदमदबम ंबजद्ध लगाने के निर्देश के बाद ही वापस हुई।
उत्तराखंड में राज्य कर्मियों की बात हो तो वह शिक्षकों की चर्चा के बिना अधूरी रहती है। राज्य में शिक्षा महकमे की सर्वाधिक चर्चा ट्रान्सफर को लेकर रहती है। शिक्षा महकमें में ट्रान्सफर कितना दुष्कर कार्य है, इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि 14 सालों में शिक्षकों के ट्रान्सफर की नीति तक फाइनल नहीं हो सकी है। पिछले दिनों देहरादून में राजकीय शिक्षक संघ के जिला अधिवेशन में शिक्षकों ने मांग की कि उन्हें दुर्गम भत्ता दिया जाए। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस राज्य की मांग ही दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों की दिक्कतों को सुगम करने के लिए हुई हो,उस राज्य के निवासी, शिक्षक होकर,उस राज्य के दुर्गम क्षेत्रों में सेवा करने के लिए अतिरिक्त भत्ते की मांग करें। जिन क्षेत्रों को सरकारी भाषा में दुर्गम करार दिया जा रहा है, क्या वहां के वाशिंदों को भी इसी तरह के अलग भत्ते की मांग करनी चाहिए? डाक्टरों की हालत तो शिक्षकों से भी चार हाथ आगे है। सबको रोगमुक्त करने का जिम्मा सँभालने वाले डाक्टर पहाड़ चढ़ने के नाम पर स्वयं रोगी हो जा रहे हैं।
तो क्या मैं उत्तराखंड सरकार और उसके मुखिया हरीश रावत के टाईप की बात कह रहा हूँ। जी नहीं, मैं तो कह रहा हूँ कि हरीश रावत यह बात कहने के लिए गलत आदमी हैं। स्कूल के दिनों में चाँद को खिलौने के रूप में मांग रहे बच्चे वाली कविता,याददाश्त में थोड़े धुंधले रूप में है। राज्य बनने के बाद के तेरह साल में हरीश रावत की स्थिति भी उस बच्चे जैसी ही है, बस उन्हें चाँद नहीं मुख्यमंत्री की कुर्सी चाहिए थी, हर हाल में,किसी भी कीमत पर। राज्य आन्दोलन के जमाने में वे आन्दोलनकारियों से कह रहे थे,राज्य नहीं हिल काउन्सिल होनी चाहिए। राज्य बन गया तो,वे कहने लगे-मुझे मुख्यमंत्री होना चाहिए। राज्य बनने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के लिए क्या-क्या न किया। अब ऐसा आदमी कर्मचारियों से कह भी दे कि तुम राज्य की सोचो तो वह नैतिक ताकत उसके शब्दों में कहाँ से आएगी जो असर कर सके?और बात सिर्फ हरीश रावत की ही नहीं है,कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही यही स्थिति है। याद करिए भाजपा राज में मुख्यमंत्री पद से हटाये गए भुवन चन्द्र खंडूड़ी 2011 में इस बात के लिए अड़ गए कि चाहे 6 महीने के लिए बनाओ पर हर हाल में, मुख्यमंत्री बनाओ,नहीं तो पार्टी छोड़ता हूँ और भाजपा को उनकी इस कुर्सी हट के सामने समर्पण करना पड़ा था। कांग्रेस सत्ता में आये या भाजपा,सरकार बनते ही कार्यकर्ताओं को सरकार में एडजस्ट करने की बात ऐसे चलने लगती है जैसे यह उनका संवैधानिक हक हो और सरकार का सबसे जरुरी उत्तरदायित्व यही हो! कांग्रेस सरकार के एक मंत्री आये दिन कोप भवन में जाने के लिए सुर्खियों में होते हैं और हर बार उनके कोपभवन के पीछे खनन के कारोबार की चर्चा चल पड़ती है।
जो सरकार में हैं, वे अपनी सत्ता के लिए किसी भी हद को पार करने को तैयार रहेंगे और अपने मातहतों को नैतिकता,कर्तव्यपरायणता की घुट्टी पिलायेंगे तो यह हमेशा गलत आदमी के मुंह से कही गयी सही बात साबित होगी,जो किसी को हजम नहीं होगी पर इस सब की कीमत तो चुकानी पड़ेगी राज्य को, राज्य के आम लोगों को आखिर कब तक?

देवभूमि में आंदोलन-आंदोलन

पुराणों-वेदों में उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। देवभूमि शब्द का अर्थ देवताओं का वास है। कहते है कि देवभूमि के कण-कण में भगवान शंकर का वास है इसलिए भगवान शंकर के साथ असंख्य देवता भी यहां वास करते है। जहां भगवान शंकर के वास के बात आती है तो वहां स्वाभाविक रूप से राक्षसों का रहना भी स्वाभाविक है। यही कारण है कि यहां दंतकथाओं में कई कथाएं प्रचलित है। उत्तराखंड राज्य बनने से पहले यह भू-भाग उ.प्र. राज्य का अंग था, लेकिन यहां की हमेशा से ही उपेक्षा होती थी। यही कारण रहा कि इस भू-भाग के लोगों ने पृथक राज्य के लिए एक लंबा आंदोलन किया। उसी आंदोलन का परिणाम था कि 2000 में इसे पृथक राज्य का दर्जा मिला। आंदोलनों के इतिहास में राज्यवासियों को दुःख-दर्द और जो वेदनाएं सहनी पड़ी उसका दर्द वह आज भी महसूस कर रहे हैं। यहां इस बात का जिक्र इसलिए किया जा रहा है कि राज्य गठन से लेकर अब तक देश के इतिहास में शायद ऐसा कहीं नहीं होता है कि जहां आंदोलनों का दौर नहीं थमा। आखिर इसके पीछे क्या कारण है। इन पर चर्चा करने के लिए ही उक्त पक्ंितयों को लिखने पर मजबूर हुआ। उत्तराखंड राज्य निर्माण से लेकर इससे पहले से राज्य के हालातों पर नजर रखने के बाद यह बात स्पष्ट होती है कि राज्य के नीति-निर्माता राज्य के निर्माण की मूल भावना को समझ ही नहीं पाए। यही कारण है कि आंदोलनों का दौर आज दिन तक नहीं थमा। आंदोलनों का दौर तो देश के विभिन्न राज्य में या तो किसी बड़ी समस्या के समय उत्पन्न होते हैं या फिर राज्यों के विधानसभा सत्र के दौरान। वहीं उत्तराखंड राज्य में तो नित्य ही आंदोलनों का दौर रहता है। इसके पीछे असल कारण क्या है यह एक यक्ष प्रश्न है और इस पर सोचने विचारने की आवश्यकता है। इस मामले में जब कई लोगों से वार्ता की गई तो लोगों का कहना था कि देश के अन्य राज्यों में भी आंदोलन होते हैं पर वह उत्तराखंड राज्य जैसे नहीं यहां तो नित्य आंदोलन होते हैं और हमारे भाग्यविधाता सोये रहते है। हमारे भाग्यविधाताओं को तो सिफ अपनी जेबे भरने और एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड लगी रहती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण राज्य में अभी तक के मुख्यमंत्रियों का बदलना है। जानकारों की माने तो राज्य के भाग्यविधाता चाहे तो राज्य में हो रहे आंदोलनों को एक दिन में समाप्त करवा सकते हें लेकिन वह ऐसा जनबूझकर नहीं करवाना चाहते है। उन्हे तो राज्य की जनता को परेशानी में दिखना अच्छा लगता है।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

‘दर्द की दवा’

माथे पर कलंक8सरकार और राजनैतिक दल सत्ता की दौड में इस राज्य को ले जाने को है आतुर8अपराधियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह बनता जा रहा है उत्तराखंड8सरकार और अपराधियों को सम्मान जेलों से छोडेगी तो बदमाशों का तो बढ़ेगा ही मन्नोबल 8राजनीति और नौकरशाही दे रही है राज्य में अपराधियों को संरक्षण8पुलिसवालों की पोस्टिंग में दलाली खाने के काम में जुटे हैं राजनेता और नौकरशाह8सीएम ने विवेकहीन तरीके से खजाने का मुंह खोलकर पीड़ित परिवार को किया दस लाख देने का एलान8मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक डीएम नैनीताल में भी दरंदिगी का शिकार हुई बच्ची के नाम पर पिथौरागढ़ में स्कूल का नामकरण और हल्द्वानी में स्मारक बनाने का किया एलान8क्या बच्चों को ऐसे नामकरणों या स्मारकों के निर्माण से न्याय मिल सकता है?8उत्तराखंड में पिछले कुछ सालों से महिलाों और बच्चियों के खिलाफ हिंसा ने तेजी से पसारे अपने पांव

उत्तराखंड में घोटालों व भ्रष्टाचार में डूबी अभी तक की सरकारों का ध्यान उत्तराखंड के विकास की ओर कभी नहीं गया। अभी तक की सरकारों का ध्यान सिर्फ दलालों, माफिया, पूंजीपतियों की सेवा में मशगूल रहने पर गया। यही कारण है कि उत्तराखंड में दिन-प्रतिदिन ऐसी घटनाएं घट रही है जो समाज में विकृति पैदा कर रही है। यह कहा जाए कि वर्तमान समय में उत्तराखंड में सत्ता के शिखर पर दलाली का खेल चला रहा है और हमारे राजनेता से लेकर नौकरशाह इस कार्य का बखूबी अंजाम देकर अपनी जेबों को भरने में लगे हैं राज्य के विकास की ओर कोई सोच भी नहीं रहा है तो इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। फिर इस बात की कि राज्य में ईमानदारी और जिम्मेदारी की उम्मीद किससे की जा सकती है। सत्ता के गलियारे से लेकर आम जन की जुबा पर यह बात की हमारे प्रदेश के वर्तमान सीएम बेदम है। इस बात को सुनकर कोई भी अचंभित हो सकता है। हाल ही में हल्द्वानी कांड के बाद सीएम की घोषणा के बाद उपजे विवाद और उस पर आमजन की प्रतिक्रिया पर आधारित उदय दिनमान टीम का यह विशेष आलेख। संपादक
हल्द्वानी से बच्ची गायब होती है। उसकी तलाश में परिजन बदहवास भटकते हैं। पुलिस के सामने गिड़गिड़ाते हैं। मगर जब सच्चाई खुलती है तो दरिंदगी की हदें पार हो जाती हैं। साथ ही संवेदनहीन पुलिस तंत्र को भी बेनकाब करती है, जिसके मात्र 500 मीटर के दायरे में बच्ची का शव बरामद होता है। इस हादसे पर बच्चा, बूढ़ा जवान हर कोई सड़कों पर उतर आता है। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तो तब पार हो जाती है जब इस निर्मम हत्याकांड का मुआवजा तय कर दिया जाता है। उसके नाम पर स्मारक बनाने की मुनआदी हो जाती है। हर किसी की जुबान पर ये सवाल तैर रहा है कि आखिर विभित्स घटनाओं को सबक के तौर पर स्मृतियों में विद्यमान रखने की ये कौन सी परिपाटी है? दुर्भाग्य से सरकार मां का र्मम और पिता की पीड़ा नहीं पकड़ पा रही है। बच्ची के शोक में अचेत हो गई मां और पिता के दर्द की दवा अभी मुआवजा देने या शिलापट बना देना नहीं है। अगर होता तो उसके पिता इसे यह कहकर नहीं ठुकरा देते कि उन्हें मुआवजा नहीं अपराधियों की दरकार है।
विजय बहुगुणा के कुशासन का ढोल पीटते हुए सीएम की कुर्सी तक पहुंचे हरीश रावत जिस विवेकहीनता का परिचय दे रहे हैं वह उनके जमीनी नेता होने पर ही सवाल उठाता है। हल्द्वानी में बच्ची के साथ दुष्कर्म और हत्या के मामले में जिस तरह सड़कों पर उतरी जनता के गुस्से को शांत करने के लिए हरीश रावत ने पीड़ित परिवार की मजबूत सामाजिक-आर्थिक हालात की अनदेखी कर पीड़ित परिवार को दस लाख रूपये की सरकारी सहायता देने का एलान किया और उस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया सामने आई, उसने इस जमीनी मुख्यमंत्री को हकीकत में जमीन सुंघा दी। राज्य में बढ़ते अपराधों और कानून व्यवस्था की बिगड़ती हालात को काबू में लाने के बजाय मुख्यमंत्री द्वारा इस तरह पीड़ित परिवार के लिए मुआवजे का ऐलान करना उस विवेकहीनता का ही विस्तार है जो कभी सीएम रहते हुए विजय बहुगुणा द्वारा आपदा पीड़ितों को भजन-कीर्तन करने की सलाह के रूप में सामने आया था। शांत फिजाओं के लिए जाने जाना वाला यह राज्य अब अपराधियों का गढ़ बनता जा रहा है। राजधानी देहरादून से लेकर राज्य के दूसरे हिस्सों में आए दिन हत्या, बलात्कार की घटनाएं आम हो गई हैं, लेकिन बिगड़ती कानून-व्यवस्था के सवाल पर जिस तरह हमारे नेता और नौकरशाही पेश आ रही है, वह सबसे गंभीर चिंता का विषय है। हल्द्वानी में बच्ची के बलात्कार और हत्या के बाद जिस तरह से नेताओं और नौकरशाहों ने अपनी विवेकहीनता का परिचय कराया, वह हैरान करने वाला है। कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के बजाय जिस तरह सीएम हरीश रावत द्वारा पीड़ित के परिजनों को दस लाख रूपया मुआवजा देने का ऐलान किया और फिर रस्म अदायगी के तौर पर अपने औद्यौगिक सलाहकार रंजीत रावत के बेटे की शादी में शामिल होने के बाद पीड़ित के परिजनों से मिलने के लिए हल्द्वानी की ओर रूख किया, वह बताता हैं कि एक मुख्यमंत्री क तौर पर ऐसी घटनाओं के वक्त जो संवेदनशीलता की दरकार होती है, हरीश रावत में वह सिरे से नदारद है।
हल्द्वानी में एक बच्ची जो अपने माता-पिता के साथ पिथौरागढ़ से शादी समारोह में आई थी, उसका शादी समारोह स्थल से अपहरण और फिर दुराचार के बाद हत्या कर दी गई। करीब एक सप्ताह तक रिपोर्ट दर्ज होने के बाद तक पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। पिछले साल दिल्ली गैंग रेप के बाद महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मुददे पर देश भर में आये उबाल से लगा था कि शायद अब इस तरह की वीभत्स घटनाएँ पर अंकुश लगेगा, लेकिन ऐसे आपराधिक वारदातें थमने का नाम नहीं ले रही हैं। राज्य में जिस तरह से अपराध बढ़ रहे हैं वह नई बेचैनी पैदा कर रही है। पिछले कुछ सालों से महिलाओं और बच्चियों के खिलाफ हिंसा ने तेजी से अपने पांव पसारे हैं। सरकार में बैठे नेताओं की विवेकहीनता और पुलिस के कामकाज में हस्तक्षेप इस राज्य में अपराधियों को खाद पानी मुहैया करा रहा है। हत्द्वानी हत्याकांड़ में पुलिस की कार्यशैली जिस रूप में सामने आई वह पुलिस के निकम्मेपन और सरकार की संवेदनहीनता को ही दर्शाता है। हल्द्वानी में बच्ची की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज होने के एक सप्ताह तब तक निष्क्रिय बैठी रही, जब तक कि लोग सड़कों पर नहीं उतर आये। जब एक खच्चर वाले की सूचना पर पुलिस बच्ची की लाश मिली और पूरे क्षेत्र में जगह-जगह हत्यारों की गिरफतारी की मांग को लेकर प्रदर्शन होने लगे तो पुलिस ने अप्रत्याशित तेजी दिखाते हुए अगले ही दिन एक संदिग्ध लोडर चालक समेत तीन को गिरफतार कर हत्याकांड को सुलझाने का दावा कर लिया। सवाल यह उठता है कि पुलिस ने जिस आरोपी को लुधियाना से गिरफतार किया उसे हल्द्वानी से बाहर निकलने का मौका ही क्यों दिया, वह भी तब जबकि पुलिस बच्ची की लाश मिलने से पहले ही आरोपी से एक बार पूछताछ कर चुकी थी। बच्ची के साथ नृशंसता करने वाले जितने दोषी हैं, अपराधियों को अपराध करने से रोकने में नाकाम तंत्र भी उतना ही गुनाहगार है।

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

उदय दिनमान का दिसंबर 2014 अंक

दोस्तो हिंदी मासिक उदय दिनमान का दिसंबर 2014 अंक छप कर आ गया है इस बार फिर कुछ खास है
http://books.google.co.in/books?uid=105469050825667045414&so
urce=gbs_lp_bookshelf_list

पानी से ‘आग’

 प्रतिभाओं के लिए स्थान और उम्र कोई मायने नहीं रखती है। उत्तराखंड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले के सूदूरवर्ती गांव रांसी में तैनात फार्मसिस्ट चन्द्रकान्त बेंजवाल की अनोखी खोज ने दुनिया को वैकल्पिक ऊर्जा का सबसे सस्ता और कम खर्चीला साधन उपलब्ध कराया है। वह भी पानी सेे प्राकृतिक गैस वैकल्पिक ईधन। आपको पढ़कर अजीब लग रहा होगा, लेकिन यह सच है। आइए, आपको इस बारे में विस्तार से बताते हैं।


सोमवार, 1 दिसंबर 2014

हिंदी मासिक उदय दिनमान का दिसंबर अंक प्राप्त करने के लिए संपर्क 9897094986/9410982252

ई मैगजीन के लिए इस लिंक पर जाए

http://books.google.co.in/books?uid=105469050825667045414