गुरुवार, 8 जनवरी 2015

गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!

उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय से तो यही होगा
गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी!


राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में, जहाँ लगभग 7 प्रतिशत भूमि ही खेती के लिए बची है। उसमें भी जंगल की जमीन के साथ खेती की बेशकीमती जमीन आपात्कालीन धारायें लगा कर इन परियोजनाओं के लिये अधिग्रहीत की जा रही है। टिहरी बाँध के बाद तमाम दूसरे छोटे-बड़े बाँधों से विस्थापित होने वालों को जमीन के बदले जमीन देने का प्रश्न ही सरकारों ने नकार दिया है। दूसरी तरफ विशेष आर्थिक क्षेत्र ;सेजद्ध के लिए 100-100 हैक्टेयर जमीनें विशेष छूट दरों पर उपलब्ध करायी जा रही हैं। खेती की जमीन व सिकुड़ते जंगलों पर दबाव बढ़ रहा है। औद्योगिक शिक्षा संस्थानों की कमी के चलते आम उत्तराखण्डी के पास इन क्षेत्रों में रोजगार के अवसर वैसे ही बहुत कम है, परिणामस्वरूप अकुशल मजदूरी या पलायन ही परियोजना प्रभावितों के हिस्से में आता है। हाल ही में उत्तराखंड सरकार की कैबिनेट में लिये गए निर्णय और राज्य में बाधों से होने वाले नुकसान पर केंद्रित संतोष बेंजवाल की यह खास रिपोर्ट।
जल-विद्युत परियोजनाओं से बाढ़ें, भूस्खलन, बंद रास्ते, सूखते जल स्रोत, कांपती धरती, कम होती खेती की जमीन, ट्रांस्मीशन लाइनों के खतरे, कम होता खेती उत्पादन और अपने ही क्षेत्र में खोती राजनैतिक शक्ति और लाखों का विस्थापन यानी ये उपहार हमें उत्तराखण्ड में बनी अब तक की जल-विद्युत परियोजनाओं से मिले हैं और मिलेंगे। इन सबके बावजूद बिना कोई सबक सीखे बाँध पर बाँध बनाने की बदहवास दौड़ जारी है। 28 दिसंबर 2014 को उत्तराखंड की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय हैं। निर्णय के अनुसार उत्तराखण्ड के अधिकांश गाड़-गधेरों पर छोटे-बड़े बाँध बनाने की तैयारी है। देशी-विदेशी कम्पनियों को परियोजनायें लगाने का न्यौता दिया जा रहा है। निजी कम्पनियों के आने से लोगों का सरकार पर दबाव कम हो जाता है, लेकिन कम्पनी का लोगों पर दबाव बढ़ जाता है। दूसरी तरफ कम्पनी के पक्ष में स्थानीय प्रशासन व सत्ता भी खड़े हो जाते हैं। साम, दाम, दंड, भेद, झूठे आँकड़े व अधूरी, भ्रामक जानकारी वाली पर्यावरण प्रभाव आँकलन रिपोर्ट, जनता को उसकी जानकारी भी नहीं मिलना। ऐसी परियोजनाओं में ऐसा ही होता है। फिर से वही कहानी कि  परियोजना वाले कहेंगे कि वह लोगों को नौकरियाँ देंगे। गाँव, खेत, खलिहान के बदले एक-एक नौकरी! कितनी नौकरियाँ मिलीं अभी तक और कितनी मिलेंगी? यह तो राम ही जाने।
यहां सबसे पहले सूबे के सीएम हरीश रावत की बात करते हैं। 28 दिसंबर 2014 को कैबिनटे बठैक के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत अब पूरी तरह बनेकाब हो गये हैं। वैसे भी एक साल से अधिक किसी मंत्री या मुख्यमंत्री को अपनी क्षमता दिखाने के लिए नहीं दिए जा सकते। हरीश रावत को लेकर सब को मुगालता था कि ग्रामीण पृष्ठभूमि, तूणमूल स्तर से राजनीति करने, अपनी पार्टी के भीतर विभिन्न पदों पर रहने और केंद्र सरकार में एकाधिक मंत्रालयों में काम करने का अनुभव के कारण वे उत्तराखंड के सबसे सफल मुख्यमंत्री साबित होंगे। इससे पहले किसी मुख्यमंत्री में ये सभी योग्यायें  थी तो वे नारायण दत्त तिवाडी थे। मगर शुरू में ही पृथक राज्य के धुर विरोधी रहे तिवारी नये राज्य का निर्माण करने अथवा शासन करने नहीं , रिटायमंट के दिन काटने उत्तराखंड में आए थे।
रावत सरकार के पहले  चार-पांच महीनों के कामकाज पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योकि उन्हें विजय बहुगुणा का छोड़ा हुआ मलबा साफ करना था और उसी बीच लोकसभा या उसके बाद पंचायत चुनावों की आचार संहिता लग गईथी। अपनी सरकार के असंतुष्ट मंत्रियों से भी उन्हें बार-बार दो -चार होना पड़ रहा था। जब तक वे इनसे निपटते उन्हें गंभीर चोट लग गई। आज भी अपनी गर्दन का पट्टा उनके व्यक्त्वि का अभिन्न हिस्सा बना हुआ है। मगर अब उन्हें लेकर मोहभंग की स्थितियां पूरी तरह साफ हो गई हैं। कोई भी व्यक्त उनसे मिल कर बहुत संतुष्ट हो कर लौटता है क्योंकि वे उत्तराखंड की सारी समस्याओं को समझे भी है और उनके सामाधान में रूचि लेते भी दिखाई देते हैं। मगर अन्ततः फैसले वे वही लेते हैं, जो उनकी पार्टी के महिषसुरों अर्थात ठेकेदारों दलालो और माफियाओं के हित में होते है। इसका ताजा उदाहरण 28 दिसंबर की कैबिनेट बैठक में लिये गये सूक्ष्म एवं अति लघु विधुत परियोजनाओं तथा ईको सेंसिटिव जोन संबंधी निर्णय हैं। जल परियोजनओं को लेकर सूक्ष्म स्तर और ग्राम सभाओं तक जाने की बात हर समझदार व्यक्ति करता है। मगर जब इस सि(ांत को जमीन पर उतारने की बात आई तो रात फिर एक बार बड़ी पूजी वालों और ठेकेदारों के पक्ष में झूके। ग्रामीणों और स्थानीय समुदाय के नहीं। कैबिनेट का यह फैसला लागू हुआ तो ग्रामीण एक बार अपना अंगूठा लगा देने के बाद फिर परियोजनाओं से बाहर हो जायेंगे, शायद अपने गांवों से भी बाहर हो जायें। पानी से प्राप्त उर्जा का सारा मजा कंपनियों वाले लेगे। इससे पहाड़ी गांवों में गरीबी और पलायन का तांडव और तेज होगा। चूकि उत्तराखंड की बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं पर दुनिया भर में विवाद उठे थे, विशेषकर जून 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद। इसीलिये रावत सरकार ने गांव वालों की आड में बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों को उपकृत करने का यह शातिर तरीका निकाला है।
कैबिनेट का दूसरा फैसला ईको सेंसिटिव जोन को वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह करने के बारे में है। ईको संेसिटिव जाने को लेकर विरोध दो तरह से हो रहा है। पहला अब तक प्रदेश में अभयारण्यों आदि के रूप में जिस तरह स्थानीय मुदाय को वंचित किया गया है, उस अनुभव को देखते हुए वामपंथी सोच के लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ईको सेंसिटिव जोन को शायद स्थानीय ग्रामीण समुदाय एक बार फिर से विपरीत रूप से प्रभावित होगा । मगर ईको सेंसिटिव जोन को लेकर पूर बातचीत हुई है और न स्थितियों पूरी तरह साफ है।। ईको सेंसिटिव जोन के विरोध को लेकर जो दूसरी लाबी मुखर है, वह कांग्रेस,भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल आदि के भीतर बैठी ठेकेदार लाबी है, जो चाहती है कि निर्माण कार्यों को लेकर चल रही उसकी ठेकेदारी में कोई रोट-टोक न हो। वे धड़ल्ले से तथाकथित विकास कार्य करें, चाहे उसके बाद केदारनाथ जैसे एक नहीं दर्जनों हादसे हो जाये और यह पूरा पर्वतीय प्रदेश मरूभूमि बन जाये। यह ठेकेदार लाबी उत्तराखंड की राजनीति में इतनी मजबूत है कि इस नवजात प्रदेश को मजाक में ठेकेदारखंड भी कहा जाने लगा है। हरीश रावत सरकार ने इस ठेकेदार लाबी के दबाव में ही ईको संसिटिव जोन का मामला इतना अािक चढाया है। स्थानीय और ग्रामीण हितों की पैरोकार वाम ताकतों के पक्ष में नहीं । क्योंकि यदि हरीश रावत ईको संसिटिव जोन को नहीं मानते तो उन्हें यह भी तो बतलाना चाहिये कि फिर ठेकेदार लाबी को उपकृत करने के अतिरिक्त उत्तराखंड के विकास का कौन सा माडल उनके पास है।उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड राज्य में पर्यटन के नाम पर पर्यावरण की दृदृष्टि से संवेदनशील बुग्यालों को स्कीइंग क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है। विकास के नाम पर उपजाऊ जमीन को सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया सड़कों का चैड़ीकरण का मामला सीधे बाँध परियोजनाओं और पर्यटन से जुड़ा है। इससे भी जंगलों एवं कृकृषि भूमि का विनाश हुआ है। हजारों-लाखों पेड़ों का कटना पर्यावरण की अपूरणीय क्षति है। पचास-साठ मीटर ऊँचे बाँधों को भी छोटे बाँधों की श्रेणी में रखकर सभी नदी-नालों को सुरंगों में डाला जा रहा है। ‘बडे़ बाँधों के अन्तर्राष्ट्रीय आयोग’ व ‘विश्व बाँध आयोग’ की परिभाषा के अनुसार 15 मीटर से ऊँचे बाँध बडे बाँधों में आते हैं। टिहरी बाँध से उपजी समस्याओं पर माननीय मुख्यमंत्री का कथन था कि टिहरी बाँध के विस्थापन को देखते हुए अब उत्तराखण्ड में बडेघ् बाँध नहीं बनेंगे। किन्तु हाल ही में राज्य सरकार द्वारा टिहरी जल-विद्युत निगम से टौंस नदी पर 236 मीटर ऊँचा बाँध बनाने का समझौता किया गया है। यह किस श्रेणी में आता है ? 280 मीटर का पंचे वर बाँध किस श्रेणी में आयेगा ?
देहरादून-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में हो रहे पानी व बिजली के दुरुपयोग के लिए इन बाँधों का बनना कितना आवश्यक है ? देश में नई आर्थिक नीति के तहत् 8 प्रतिशत विकास दर रखने के लिए हजारों मेगावाट बिजली की भ्रमपूर्ण माँग की आपूर्ति के लिए इन सौ से अधिक परियोजनाओं का होना कितना आवश्यक है? याद रहे कि भारत का प्रत्येक निवासी लगभग 25 हजार रुपये से ज्यादा के कर्ज से दबा हुआ है। ऐसे में विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, जापान बैंक आफ इण्टरनेशनल कारपोरेशन, अन्र्तराष्ट्रीय वित्त संस्थान व एक्सपोर्ट क्रेडिट एजेन्सी जैसे भयानक वित्तीय संस्थाओं के कर्ज में दबता जा रहा है। उत्तराखण्डी भी उनसे अलग नहीं हैं।
पहले अंग्रेजों और बाद में आजाद भारत के शासकों ने उत्तराखंड की इस विकसित होती आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ध्वस्त करने का षड़यंत्र किया। अंग्रेजों ने उत्तराखंड के इस पर्वतीय क्षेत्र को वन आधारित कच्चे माल व सस्ते श्रम के लिए इस्तेमाल किया। तब न सिर्फ फैलते रेल लाइनों के जाल के लिए पहाड़ के जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा गया, बल्कि सर्दियों में आग सेंकने के लिये पहाड़ के परम्परागत पेड़ों को काट कर उसका कोयला बनाया गया। साथ ही विकसित होते शहरी केन्द्रों व फौज के लिए यहाँ के युवाओं की सस्ते श्रम के रूप में सप्लाई होती रही। यह क्रम आजादी के पच्चीस साल बाद तक जारी रहा।
आज सरकारें और लोग ऊर्जा की जरूरतों का हवाला देकर पहाड़ की नदी-घाटियों को जे.पी., रेड्डी, एल.एनटी., एनटीपीसी आदि के हवाले करने, बिजली उत्पादन के नाम पर पहाड़ों व नदियों से उन्हें मनमानी करने की छूट देने की वकालत करते हैं उन्हें यह याद रखना चाहिए कि जब बिजली का आविष्कार ही नहीं हुआ था, तब पहाड़ के लोगों ने आज से एक हजार साल पहले घट ;पनचक्कीद्ध का आविष्कार कर पानी से ऊर्जा उत्पन्न करने की विधि खोज ली थी। यह विधि नदी और पहाड़ों को छेड़े बिना ही ‘रन आफ रिवर’ प(ति से ज्यादा सफल हुई थीं। पहाड़ के लोगों को यह विधि सिखाने के लिए किसी जेपी, रेड्डी, एलएनटी, एनटीपीसी को लाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। यह इको सिस्टम को क्षति पहुँचाए बिना विकास करने का पहाड़ के लोगों का सिंचित परंपरागत ज्ञान था। आज सुरंग आधारित जिन बड़ी-बड़ी विनाशकारी परियोजनाओं को ये कम्पनियाँ बना रही हैं वो रन आफ रिवर प(ति नहीं कहलाती हैं। लोगों के इस संचित ज्ञान के आधार पर यहाँ की कृषि, पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी के साथ ही पनचक्की के लिए विकसित की गई रन आफ रिवर प(ति को ऊर्जा की अन्य जरूरतों के लिए विकसित कर यहाँ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता था।
राज्य बनने के बाद जल- जंगल- जमीन पर स्थानीय निवासियों के परम्परागत आधिकार बहाल करने और पारिस्थितिकीय तंत्र से ज्यादा छेड-छाड़ किये बिना विकास का वैकल्पिक ढाँचा खड़ा करने की जो जिम्मेदारी राज्य के नए नेतृत्व के जिम्मे थी, वह अपनी वर्गीय प्रतिब(ता के चलते भाजपा-कांग्रेस की सरकारें उसके विपरीत रास्ता चुनती गई। राज्य की आर्थिकी को मजबूत आधार देने के नाम पर ऊर्जा प्रदेश और पर्यटन प्रदेश के नारे गूँजने लगे। विद्युत कंपनियों की बड़ी-बड़ी मशीनों के निर्वाध आवागमन के लिए सड़कों को चैड़ा कर इन सड़कों और सुरंगों का सारा मलवा पेड़ों सहित नदियों में डाल दिया गया। राज्य में राजस्व वसूली के बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शराब के व्यवसाय को मुख्य व्यवसाय का दर्जा दे दिया गया। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति औसत आय को बढ़ाने के नाम पर जमीनों की लूट का कारोबार पनपाया गया। नतीजे के तौर पर नदी-घाटियों पर विद्युत कंपनियों का कब्जा और मनमानी बढ़ती गई। पर्यटन व्यवसाय और ‘इको टूरिज्म’ को बढ़ावा देने के नाम पर सड़कों, नदी घाटों और जंगलों पर सत्ता के संरक्षण में कब्जा करने की होड़ में कांग्रेस, भाजपा, बसपा, यूकेडी और सपा जैसी कोई भी पार्टी पीछे नहीं रही। अब तक राज्य में विद्युत कम्पनियाँ 1700 वर्ग किलोमीटर जंगल साफ कर चुकी हैं। विभिन्न योजनाओं के लिये राज्य सरकार 17 हजार वर्ग किलोमीटर वनभूमि को हस्तांतरित कर चुकी है। मगर इसके बदले दोगुने क्षेत्र में वृक्षारोपण की अनिवार्य शर्त की खानापूर्ति के लिए दूसरे राज्यों में दर्शाकर आबंटित धन की जमकर लूट की गई। गंगा नदी के सौ मीटर बाहर तक कोई निर्माण न करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद हरिद्वार से लेकर गंगोत्री-केदारनाथ तक गंगा व अन्य नदियों के जल को छूते हुए होटल व्यवसायियों, धार्मिक संस्थाओं और सरकारी विभागों द्वारा भवन निर्माण 15 जून 2013 तक बेरोकटोक जारी था। राज्य सरकार को हेलीपैडों के इस्तेमाल का कोई भी शुल्क दिए बिना यात्रा सीजन में निजी कंपनियों के हेलीकॉप्टर रोजाना चार चक्कर उच्च हिमालयी क्षेत्रों का लगा रहे थे, जिन पर रोक लगाने के आदेश 10 मई 2013 को माननीय हाईकोर्ट ने दे दिए थे।
सत्ता द्वारा सत्ता के संरक्षण में इको सिस्टम के साथ किये जा रहे इस विनाशकारी व्यवहार ने ही इको सिस्टम को भारी नुकसान पहुँचाया है। इसी का खामियाजा 16-17 जून की विनाशकारी आपदा के रूप में हमें भुगतने को मजबूर होना पड़ा। पहाड़ के जीवन में अति मुनाफे के लिए जब तक यह बाहरी हस्तक्षेप नहीं था, यहाँ के इको सिस्टम को कोई नुकसान नहीं पहुँचा था। मगर अब अति मुनाफे पर खड़ी प्रकृति के लिए विनाशकारी यह राजनीति ‘इको सैंसिटिव जोन’ के माध्यम से उन पर्वतवासियों को विस्थापन की सजा दे रही है जो हजारों वर्षों से इस इको सिस्टम के मजबूत पहरेदार रहे हैं। ‘इको सैंसिटिव जोन’ इनकी परम्परागत आजीविका पर एक बड़ा हमला है जो इन दुर्गम क्षेत्रों के नौजवानों को भी पलायन के लिए मजबूर कर देगा। इको सिस्टम को बचाए रखने और जैव-विविधता की रक्षा के नाम पर उत्तराखंड के एक बड़े भू-भाग को ‘इको सैंसिटिव जोन’ में तब्दील करने का षडयंत्र चल रहा है। इसके पहले चरण में 18 दिसंबर 2012 से गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के एक सौ किमी क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित किया जा चुका है। केंद्र सरकार ने सभी राष्ट्रीय पार्कों और सेंचुरीज के दस किलोमीटर बाहरी क्षेत्र को इको सेंसिटिव जोन घोषित करने का निर्णय लिया है।
उत्तराखंड में पहले से चैदह राष्ट्रीय पार्क और सेंचुरीज मौजूद थे। बावजूद इसके राज्य सरकार ने इनकी संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव भेज कर इस साल तीन नए सेंचुरीज क्षेत्रों को स्वीकृति दिला दी है। पहले ही इन राष्ट्रीय पार्कों व सेंचुरीज की सीमा में आये राज्य के हजारों गाँवों पर विस्थापन का खतरा मँडरा रहा है। ऐसे में अगर इनके दस किमी बाहरी क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव जोन’ घोषित कर दिया गया तो उत्तराखंड की आबादी के एक बड़े हिस्से को विस्थापन के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। राज्य में ‘इको सेंसिटिव जोन’ का भारी विरोध देख सत्ताधारी कांग्रेस और भाजपा ने भी इसका विरोध किया है। इन दोनों पार्टियों का विरोध सिर्फ दिखावा है। सच तो यह है कि इको सेंसिटिव जोन’ के गठन का निर्णय एनडीए सरकार ने 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेई की अध्यक्षता में हुई बैठक में लिया था। इसी तरह 18 दिसंबर 12 को उत्तरकाशी में इको सेंसिटिव जोन के गठन का निर्णय हो जाने के बाद भी न तो राज्य की कांग्रेस सरकार ने इसके खिलाफ कोई कदम उठाया और न ही पूर्व में भेजे गए नए सेंचुरीज के प्रस्तावों को ही वापस लेने की कोई पहल की। अगर राज्य में निर्धारित सभी क्षेत्रों को इको संसिटिव जोन बना दिया गया तो वहाँ के निवासियों का जीना मुश्किल हो जाएगा। वनों पर निर्भर पशुपालन और खेती छोड़ने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया जाएगा, लघु वन उत्पाद जो उनका परम्परागत वनाधिकार है से वे वंचित हो जायेंगे। वे अपनी आबादी का विस्तार नहीं कर पायेंगे और पुराने घरों का पुनर्निर्माण करने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से इजाजत लेनी होगी। जबकि पूँजीपतियों को होटल व कॉटेज बनाकर अपना व्यवसाय करने की इजाजत होगी। बात साफ है कि सरकार इको सेंसिटिव जोन के नाम पर इको सिस्टम को नुकसान पहुँचाने वाली ताकतों के व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए स्थानीय जनता को उनकी जमीनों व परम्परागत आजीविका से बेदखल करना चाहती है।
राज्य बनने के बाद सत्ताधारी कांग्रेस-भाजपा के नेताओं ने योजनाब( तरीके से उत्तराखंड में बचे इको सिस्टम के बदले राज्य को ग्रीन बोनस देने की मांग शुरू कर दी थी। भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने तो आगे बढकर हिमालयी राज्यों की बैठक कराने और राज्य को प्रतिवर्ष चालीस हजार करोड़ रुपये ग्रीन बोनस के रूप में देने की मांग कर डाली। तब यह राशि राज्य के कुल सालाना बजट का दोगुना से भी ज्यादा थी। इस अभियान में वर्तमान मुख्यमंत्री से लेकर कई पर्यावरणविद तथा एनजीओ भी लगे हैं। एनजीओ ने हिमालयी राज्यों का अपना एक नेटवर्क भी स्थापित कर दिया है। दरअसल ग्रीन बोनस के नाम पर यह पूरा अभियान जो पिछले बारह वर्षों से उत्तराखंड में चलाया जा रहा है वह इको सेंसिटिव जोन’ के निर्माण के लिए वातावरण तैयार करने के अभियान का ही हिस्सा था जो साम्र्राज्यवादियों और उनकी हितपोषक फंडिंग एजेंसियों द्वारा वित्त पोषित था। हिमालय और उसके इको सिस्टम को हजारों वर्षों से संरक्षित रखने वाले लोगों को उनकी जमीनों और परम्परागत आजीविका से बेदखल कर आखिर यह ग्रीन बोनस किसके लिए माँगा जा रहा है?
जीवन को समझना जरूरी
ज्ञात हो कि 16-17 जून को उत्तराखंड में आई विनाशकारी आपदा ने पहाड़ पर विकास के माडल और इको सिस्टम ;पारिस्थितिकीय तंत्रद्ध से छेड़छाड़ पर बहस को तेज कर दिया है। इस सवाल पर सारी बहसों को अंततः उत्तराखंड में ‘इको संसिटिव जोन’ बनाने के समर्थन में ले जाया जा रहा है। पर्यावरणविदों के अलावा जल-जंगल-जमीन पर जनता के परंपरागत अधिकारों की वकालत करने वाले कई संगठन व लोग भी इसके समर्थन में खड़े दिखाई दे रहे हैं। पहाड़ में वर्तमान विद्युत परियोजनाओं के समर्थक भी इस तबाही को रोकने के लिए और भी बड़े पैमाने पर बाँधों व सुरंगों के जरिये नदियों के वेग को रोकने की खुलकर वकालत कर रहे हैं। मगर इन सारी बहसों के बीच पहाड़ का वो मानव समाज और उसकी चिंताएं नजर नहीं आ रही हैं जो हजारों वर्षों से पहाड़ को, यहाँ के इको सिस्टम को और यहाँ की आत्मनिर्भर स्थानीय अर्थव्यवस्था को बचाता आया है। पहले पहाड़ पर मानव जीवन को समझना जरूरी है। हजारों वर्षों से कृकृषि-पशुपालन और ग्रामीण दस्तकारी पर आधारित पहाड़ की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार वन रहे हैं। इसलिए पहाड़ के लोगों ने हजारों वर्षों से न सिर्फ वनों को लगाया और उनकी रक्षा की बल्कि इको सिस्टम को समझते हुए अपने रहन-सहन और आजीविका के साधनों का विकास किया। पहाड़ के गाँवों की बनावट देखें तो हर गाँव में ऊपर जंगल, जंगल के नीचे आबादी, आबादी के नीचे खेती, खेती के नीचे नदी। यानी किसी भी गाँव की आबादी नदी से सटी नहीं है। अपने अनुभव से हमारे पुरखों ने नदी तट को आबादी के लिए सुरक्षित नहीं माना था। पहाड़ में कहावत है कि नदी और खेत की मैड़ बारह वर्ष में अपनी पुरानी जगह पर आ जाती है। नदी को लेकर यहाँ के ग्रामीणों के इस परम्परागत ज्ञान को वर्तमान आपदा ने पूरी तरह सही साबित कर दिखाया है। पहाड़ के लोगों ने अपने पानी के स्रोतों को बचाए रखने और चोटियों पर अपने पालतू व जंगली जानवरों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिए चाल-खाल ;छोटे-छोटे तालाबद्ध बनाने की एक प(ति विकसित की जिसमें बरसात का पानी जमा होता था और वह भूगर्भीय जल को बढ़ाने का काम करता था। आज भी हल-बैल के साथ पहाड़ की खेती व पशुपालन से लेकर कृषि यंत्रों तक वनों पर निर्भरता है। चूँकि वन पहाड़ के लोगों के जीवन का अभिन्न अंग हैं इसीलिए एकमात्र उत्तराखंड के पहाड़ ही हैं जहाँ सरकारी वनों से परम्परागत अधिकार छिन जाने के बाद लगभग 16 हजार राजस्व गाँवों वाले राज्य की जनता ने 12 हजार से ज्यादा गाँवों में वन पंचायतें गठित कर सरकारी वनों से इतर अपने खुद के वनों का निर्माण किया है।

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