शनिवार, 30 जुलाई 2016

केदार घाटी की बेटी


शहर मे लाखों का पैकेज छोड़ गांव की माटी में उगा रही है सोना
संजय चौहान
वास्तव में यदि देखा जाय तो वर्तमान में जिस तरह से बेटियां पहाड़ का नाम रोशन कर रही है और शहर की चकाचौंध दुनिया को अलविदा कह कर गांवो की और लौट रही है और रोजगार के नए अवसर उपलब्ध करा रहे हैं वो भविष्य के लिए शुभ संकेत है, रंजना रावत ने अपने चमकदार कैरियर को छोड़ पुरखों की माटी में पलायन को रोकने और रोजगार सृजन की जो मुहीम चलाई है वो सुखद है, इस लेख के जरिये रंजना को उनके बुलंद होंसले और जिजिवाषा को एक छोटी सी भेंट
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जी हाँ जिन हाथों ने बीमार ब्यक्तियों के लिए गोली, इंजेक्सन, आँखों की दवाई, ट्यूब से लेकर जीवन रक्षक दवाई बनानी थी वही हाथ अपनी पुरखों की माटी की मिटटी में सोना उगा रही है, २४ सालों तक जिन हाथों ने केवल पेन, पेन्सिल, रबर और मोबाइल को ही चलाया हो और उसके बाद पहली बार दारंती, कुदाल, बेलचा, गैंती, गोबर, से लेकर मिटटी से साक्षत्कार हुआ हो तो जरुर उसमे कोई न कोई ख़ास बात जरुर होगी, नहीं तो यों ही कोई पढाई लिखाई शहरों में करने के बाद रोजगार के लिए अपने गांव का रुख नहीं करते --- लीजिये इस बार ग्राउंड जीरो से केदार घाटी की बेटी रंजना रावत से आपको रूबरू करवाते हैं – हिमवंत कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की कर्मस्थली और महात्म्य अगस्त ऋषि की तपोभूमि में मन्दाकिनी नदी के बांयी और बसा है भीरी चंद्रापुरी का सुंदर क्षेत्र, इस पूरे इलाके में दर्जनों ग्रामसभाएं है जिनका केंद्र बिंदु भीरी है, इसी भीरी गांव के अनीता रावत और दरबान सिंह रावत जी जो वर्तमान में जिलाधिकारी कार्यालय रुद्रप्रयाग में बतौर प्रसाशनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत है के घर ३ मार्च १९९२ को एक बिटिया का जन्म हुआ, माता-पिता ने बड़े प्यार से अपनी इस लाडली का नाम रंजना रखा, माता-पिता को उम्मीद ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास था की उनके बेटी जरुर उनका नाम रोशन करेगी, रंजना बचपन से ही मेधावी और होनहार थी, रंजना की प्राथमिक से लेकर १२ वीं तक कि शिक्षा अलकनंदा और मन्दाकिनी के संगम में बसे और महान योगी श्री १०८ स्वामी सच्चिदानंद की पावन भूमि रुद्रप्रयाग में हुई, जिसके बाद हेमवंती नंदन गढ़वाल विश्वविद्यालय से फार्मेसी में स्नातक की डिग्री प्राप्त की, बचपन से ही बहुमखी प्रतिभा की धनी रंजना ने स्कूली शिक्षा से लेकर तकनीकी शिक्षा में अपनी सृजनात्मक गतिविधियों से अपनी अलग ही पहचान बनाई थी, शिक्षा ग्रहण करते समय इन्होने पोस्टर कैम्पैनिग से लेकर रंगोली में हर जगह अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया, फार्मेसी में स्नातक के बाद रंजना को बहुरास्ट्रीय कम्पनी में क्वालिटी ऑफिसर के रूप में नौकरी मिल गई, इस दौरान रंजना को कई रास्ट्रीय स्तर के सेमिनारों में प्रतिभाग करने का मौका भी मिला जिसमे उन्हें ग्रामीण इलाको की समस्याओं को जाना, मन ही मन रंजना लोगो के लिए कुछ करना चाहती थी, लेकिन वो अंतर्द्वंद में कैद हो कर रह गई थी, मन करता की लोगों के लिए कुछ करूँ और घर वाले और दोस्त नौकरी से खुश थे, इसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो कार्यक्रम ‘’ मन की बात’’ में एक महिला द्वारा पूछे गए प्रश्न – की –क्या आपको पता था की आप एक दिन देश के प्रधानमन्त्री बनोगे, तो मोदी जी का जबाब था की नहीं लेकिन अगर आपको जीवन में कुछ बनाना है तो उसके सपने जरुर देखो और उस सपने को पूरा करने के लिए हर मुमकिन कोशिस करो,-- इस एक बात ने रंजना के मन की बात सुन ली और रंजना ने अपनी अच्छी खासी नौकरी को अलविदा कह कुछ करने की ठानी, वैसे नौकरी में रहते हुये भी रंजना समाज के लिए कार्य करती रहती थी, इसी दौरान कुछ दोस्त और सहयोगियों के साथ मिलकर इन्होने आरोही फाउंडेशन की नीव रखी थी, जिसका उद्देश्य ग्रामीण इलाको के लोगो को रोजगार, पलायन, कृषि, बागवानी, स्वास्थ्य सुविधाएं, सहित कई जनपयोगी कार्यों को दूर गांव के अंतिम ब्यक्ति तक पहुँचाना था, शुरुआत में इन्होने कई गांवो में मेडिकल कैम्प लगवाये और लोगो की मदद की— नौकरी छोड़ने के बाद जैसे ही इसके बारे में माता- पिता को बताया और अपने भविष्य के कार्यक्रम के बारे में अवगत करवाया तो माता- पिता सकते में आ गए, उन्हें लगा अपनी बेटी पर उन्होंने इतने पैसे खर्च किये अब वो लोगो को क्या कहेंगे, लेकिन रंजना की जिद के आगे आख़िरकार माता- पिता ने अपनी बेटी को हरी झंडी दे दी, परिवार की हामी से रंजना को जैसे सपना सच होने जैसे था, इसी बीच रंजना ने दिल्ली से मशरूम उत्त्पादन से लेकर बागवानी, कृषि और फल संरक्षण का प्रशिक्षण भी लिए और बारीकियां भी सीखी, नई उम्मीद, नए सपने और होंसलो को लिए रंजना ने जनवरी २०१६ में चमकते भविष्य को छोड़कर अपने गांव की माटी की और रुख किया, और अपने गांव भीरी में आरोह फाउन्डेशन के जरिये अपना खुद का काम शुरू किया, शुरु शुरू में जरुर परेशानीयों से रूबरू होना पड़ा, लेकिन जिद और धुन की पक्की रंजना ने हार नहीं मानी, इस दौरान रंजना ने गांव गांव का भ्रमण कर लोगो को जागरूक और प्रेरित करने का कार्य किया, जिसकी परणीती यह हुई की महज ६ महीनो में ही रंजना ने भीरी के आस पास के ३५ गांवो के ५०० ग्रामीणों को प्रशिक्षत करके उन्हें स्वरोजगार का मंत्र दिया है, आज ३५ गांवो के लोग, मशरूम उत्पादन, कृषि, फल संरक्षण, फूल उत्पादन, साग-सब्जी उत्पादन के जरिये अच्छी खासी आमदानी कर रहें है, उनके कार्यों को कई मंचो पर सम्मान भी मिला साथ ही मुंबई कौथिग में भी रंजना को प्रतिभाग करने का मौका मिला, बकौल रंजना कहती है की अब जाकर उन्हें लगता है की वो अपने कार्य में सफल हो पाई है, कहती है की ये तो महज एक शुरुआत भर है अभी तो बहुत ऊँची उड़ान भरनी है, रंजना से हुई लम्बी गुफ्तगू में रंजना कहती है की आज भी हमारे समाज में लडकियों की जिन्दगी महज पढाई और शादी तक ही सिमित होकर रह गई है, आज भी बेटियों को सपने बुनने की आजादी नहीं है, लेकिन में बहुत खुसनसीब हूँ की मेरे माता- पिताजी ने मेरे सपनो को हकीकत में बदलने के लिए मेरा साथ दिया और मेरा होंसला बढाया शुरू शुरू में उन्हें आशंका थी लेकिन आज वे मेरी सफलता से बेहद खुश हैं, आगे कहती है की हमारे पहाड़ की महिलाओं का जीवन बेहद कठिन है, जितना मेहनत वे करते हैं उसका महज ५ फीसीदी ही उनके हिस्से आता है, यदि हम अपनी परम्परागत तकनीक में बदलाव लाकर नई तकनीक को अपनाए तो जरुर सफलता मिलेगी, जरुरत है तो सिर्फ और सिर्फ अपने हाथों पर विश्वास करने की, कुछ देर रुकने के बाद कहती है की मैंने भी तो अपने जीवन में कभी कुदाल, बेलचा, गैंती, सब्बल, कुल्हाड़ी, बांसुलू नहीं पकड़ा था और न ही इनके बारे में जाना था, लेकिन मन में लोगों के लिए कुछ करने का जूनून था, इसलिए पहले खुद से शुरुआत की और धीरे धीरे ये कारवां आगे बढ़ रहा है, आज मुझे काम करते हुये जो पहली मर्तबा देखेंगे तो उन्हें विश्वास ही नहीं होगा की मैंने २४ साल बाद कुदाल से लेकर कुल्हाड़ी पकड़ी है, लेकिन मेरा ब्यक्तिगत अनुभव कहता है की जीवन का आनंद जो अपने माटी की महक और सौंधी खुशबु में है वो मेट्रो और मॉल और बर्गर-पिज्जा में नहीं, जीवन का उदेश्य पूछने पर कहती हैं की खाली होते गांवो में यदि रौनक आ जाये, बंजर मिट्टी में सोना उगले, हारे हुये लोगों को होंसला दे सकूँ, भटके हुये लोगो को रास्ता मिल सके, पलायन कर चुके लोग वापस अपने गांवो की और लौट आये, और मायुस हो चुके चेहरों पर यदि खुशियों की लकीरों को लौटा सके तो मुझे लगेगा की में अपने मंजिल को पाने में कामयाब हो पाई, में चाहती हूँ की पहाड़ को लेकर जो भ्रांतियां लोगों के मन मस्तिष्क में घिर गई है की पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती है बस उसे बदलने का समय आ चूका है की अब पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ को नए मुकाम पर ले जा सकता है, अभी तो बस कुछ कदमों का सफर ही तय किया है आगे मंजिल साफ़ दिखाई दे रही है, पीएम मोदी को अपना आदर्श मानने वाली रंजना कहती हैं की बदलाव महज सोचने और कहने भर से नहीं आता है इसके लिए चाहिए की असली धरातल पर कार्य हो रहा है की नहीं, मुझे ख़ुशी है की पहाड़ के लोगों ने अपने बेटियों के प्रति परम्परागत सोच को तिलांजली देकर उन्हें आगे बढ़ने का होंसला दे रहें है,
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गज़ब का विश्वास रखने वाले उद्यमी और कारोबारी अरविंद बलोनी



महज़ 1200 रुपये से कारोबार शुरू करने वाले अरविंद बलोनी अब 400 करोड़ रुपये के कारोबारी साम्राज्य के मालिक

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कामयाबी की कहानियाँ लोगों को प्रेरणा देती हैं। इन कहानियों की बड़ी घटनाएं लोगों में प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए संघर्ष करने को प्रोत्साहित करती हैं। कामयाबी के मंत्र बताती हैं और कामयाबी का रास्ता दिखाती हैं। कामयाबी की कहानियाँ से लोगों को बहुत सारे सबक भी मिलते हैं। ये कहानियाँ बताती हैं कि मेहनत और संघर्ष के बिना कामयाबी नहीं मिलती।भारत में कामयाबी की ऐसी कई अद्भुत और अद्वितीय कहानियाँ हैं जो युगों तक लोगों को प्रेरणा देती रहेंगी। ऐसी ही एक बेमिसाल और गज़ब की कहानी है धीरूभाई अंबानी की। धीरूभाई अंबानी ऐसी बड़ी शख्सियत हैं जिनसे भारत में कईयों ने प्रेरणा ली और कमाल का काम किया। धीरूभाई ने अपने जीवन में कई सारी मुसीबतों, समस्याओं और चुनौतियों का सामना किया और अपनी मेहनत, संघर्ष और जीत हासिल करने के मजबूत ज़ज्बे से दुनिया-भर के लोगों को प्रेरणा देने वाली कहानी के नायक बने। धीरूभाई ने जब कारोबार की दुनिया में कदम रखा था तो उन्हें कोई नहीं जानता था। शून्य से उनका सफ़र शुरू हुआ था। लेकिन अपने संघर्ष के बल पर उन्होंने एक बहुत बड़ा कारोबारी साम्राज्य खड़ा किया। धीरूभाई की असाधारण कामयाबी के पीछे भजिया बेचकर उद्यमी बनने वाले एक साधारण इंसान से दुनिया-भर में मशहूर होने वाले बेहद कामयाब कारोबारी बनने की नायाब कहानी है।धीरूभाई अंबानी की इसी कहानी ने उत्तराखंड के एक साधारण युवा को भी बड़े-बड़े सपने देखने और उन्हें साकार करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। इस साधारण युवा ने अपनी परिवार की परंपरा को तोड़कर कारोबार की दुनिया में कदम रखा और दिलेरी से काम करते हुए सारी परेशानियों को दूर किया और फिर बड़ी-बड़ी कामयाबियां हासिल कीं। एक समय का ये साधारण युवा अब 400 करोड़ रुपये के कारोबारी साम्राज्य का मालिक है और इनका नाम है अरविंद बलोनी। अरविंद बलोनी टीडीएस ग्रुप के अधिपति हैं और इन्होंने भी मेहनत और संघर्ष के दम पर कामयाबी की नयी कहानी लिखी है।अरविंद बलोनी के जीवन में कई सारे दिलचस्प पहलू हैं। कई सारी ऐसी घटनाएं हैं जो संघर्ष करने की प्रेरणा देती हैं। अरविंद बलोनी ने कई सारे ऐसे काम किये हैं जोकि उनके परिवारवालों और पूर्वजों ने भी नहीं किये थे। ज्यादातर परिवारवालों और पूर्वजों ने पंडिताई की थी, कुछ ने सरकारी नौकरी की। अरविंद बलोनी अपने खानदान में मार्शल आर्ट सीखने वाले पहले शख्स थे। पहली बार उन्होंने ही अपने खानदान में कारोबार भी किया। बड़ा आदमी बनने का संकल्प लेकर ऋषिकेश से अपने घर से निकले अरविंद ने चंडीगढ़ में महज़ 1200 रुपये से अपना कारोबार शुरू किया और फिर उसे बढ़ाते-बढ़ाते 400 करोड़ रुपये तक का बना दिया। इस शानदार कारोबारी सफ़र में अरविंद को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा। उनके कई सारे दुश्मन हो गए। दुश्मनों ने उनके खिलाफ साजिशें कीं, धमकियां दीं, चोरी करवाई। लेकिन, अरविंद ने भी दबंगई सीख रखी थी जो उन्हें कामयाब कारोबारी बनाने में मददगार साबित हुई। अपना खुद का बड़ा कारोबारी साम्राज्य स्थापित करने वाले अरविंद बलोनी अपनी खुद की कहानी को बहुत असरदार मानते हैं। उन्हें लगता हैं कि उनकी अब तक की कहानी की वजह से कुछ लोगों के लिए ही सही वे धीरूभाई जैसा ज़रूर बनेंगे। इसी तरह से, गज़ब का विश्वास रखने वाले उद्यमी और कारोबारी अरविंद बलोनी की दिलचस्प कहानी उत्तराखंड के ऋषिकेश से शुरू होती है, जहाँ उनके पिता सरकारी नौकरी करते थे। अरविंद बलोनी का जन्म एक मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता शिव दत्त बलोनी उत्तरप्रदेश सरकार के लोक-निर्माण विभाग में स्टोर प्रभारी थे। माँ गृहिणी थीं। अरविंद का परिवार बहुत बड़ा था, उनके कई सारे रिश्तेदार थे। अक्सर घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा रहता। रिश्तेदारों का घर में आना-जाना चलता ही रहता। अरविंद का परिवार मूलतः उत्तराखंड राज्य के टिहरी-गढ़वाल जिले के चाचकड़ा  गाँव का रहने वाला था। पिता की पोस्टिंग की वजह से परिवार को ऋषिकेश आकर बसना पड़ा था। अरविंद का बचपन ऋषिकेश में ही बीता। अरविंद प्रकृति की गोद में पले और बढ़े। पर्वतमालाओं के बीच से अपना रास्ता बनाकर धरातल पर पहुँची गंगा नदी, आस-पास के छोटे-बड़े सुन्दर पहाड़, छोटे-बड़े आश्रम और इनमें साधु-संतो के जमावड़े की छाप उनके मन-मस्तिष्क पर बहुत गहरे से पड़ी थी। प्राकृतिक सौन्दर्य से सराबोर और आध्यात्म से भरे ऋषिकेश शहर से अरविंद को बहुत प्यार था।अरविंद पर उनके पिता की भी गहरी छाप थी। अरविंद बताते हैं, “पिताजी बहुत ही डायनामिक इंसान थे। वे अच्छे लीडर थे। वो हमेशा कहते थे कि इंसान को देने वाली स्थिति में होना चाहिए न कि लेने वाली स्थिति में। इंसान की मुट्ठी दूसरों के हाथ के ऊपर होनी चाहिए न कि नीचे।”अरविंद की स्कूली शिक्षा ऋषिकेश के ही भरत मंदिर इंटर कॉलेज से हुई। वे स्कूल में साधारण छात्र थे। आम बच्चों की तरह ही उनका पढ़ना-लिखना होता था। कोई ख़ास हुनर भी नहीं था। लेकिन, इस साधारण छात्र के जीवन में बड़े बदलाव ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई के दौरान आये। ग्यारहवीं में आते ही अरविंद कुछ शरारती बन गए। मासूमियत और भोलापन अचानक गायब हो गया। और इसी दौरान कॉलेज के दिनों में हुई एक घटना ने अरविंद की सोच और उनके नज़रिए को पूरी तरह से बदल दिया। अरविंद की ज़िंदगी बदल गयी।हुआ यूँ था कि किसी बात को लेकर कॉलेज में लड़ाई-झगड़ा हो गया और इसी लड़ाई-झगड़े में एक बदमाश ने अरविंद को थप्पड़ मार दी। इस थप्पड़ की वजह से अरविंद को बहुत बुरा लगा, वे अपने आप को बहुत शर्मिंदा महसूस करने लगे। उनके लिए ये थप्पड़ अपमान वाली बात थी। चूँकि पीटने वाला बदमाश ताकतवर था, अरविंद पलटवार भी नहीं कर सकते थे। उनकी ताकत कम थी, इस वजह से वे चुप थे। लेकिन, उनके मन में बदले की आग धधक रही थी। बदले की भावना इतनी ताकतवर थी कि उसने अरविंद की नींद-चैन को उड़ा दिया। अरविंद ने ठान ली कि वे अपमान का बदला लेंगे और बदमाश को सबक सिखाएंगे।अरविंद ने खुद को मज़बूत बनाने के लिए मार्शल आर्ट सीखना शुरू कर दिया। बदले की आग में जलते हुए अरविंद ने जूडो और कराटे सीखना शुरू किया। छह महीने तक मन लगाकर अरविंद ने मार्शल आर्ट सीखी और खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बना लिया । छह महीने की ट्रेनिंग के बाद जब उन्हें लगा कि वे अब किसी को भी पटकनी दे सकते हैं तब उन्होंने उस बदमाश को ललकारा। अरविंद ने इस बार बदमाश की जमकर धुनाई की और अपने अपमान का बदला लिया। उन्हें लगा कि दोस्तों में जो उनकी साख को भट्टा लगा था वो अब धुल गया है। अरविंद कहते हैं, “उस घटना ने मेरी सोच बदल दी थी। मार्शल आर्ट सीखना मेरे लिए बहुत ही फायदेमंद साबित हुआ। मार्शल आर्ट ने मुझे बहुत ताकत दी। अगर मैं मार्शल आर्ट नहीं सीखता और बदमाश को नहीं मारता तो शायद मैं कमज़ोर ही रह जाता। मार्शल आर्ट ने मेरा आत्म-विश्वास बढ़ाया और मुझमें हार न मानने का ज़ज्बा पैदा किया।”इसके बाद एक और बड़ी घटना हुई जिसने अरविंद की ज़िंदगी को नयी दशा और दिशा दी। कॉलेज की पढ़ाई पूरी होने के बाद किसी बात को लेकर अरविंद की परिवारवालों से अनबन हो गयी। इस अनबन की वजह से अरविंद के दिल को गहरा धक्का पहुंचा। वे इतना हिल गए कि उन्होंने घर-परिवार छोड़कर कही दूर चले जाने का बड़ा फैसला लिया। दुखी मन से अरविंद ऋषिकेश से रवाना हुए। वे चंडीगढ़ जाने वाली सरकारी बस पर सवार हुए। अरविंद ने बताया, “ऋषिकेश से चंडीगढ़ का वो सफ़र मैं कभी नहीं भूल सकता। सफ़र भर मेरे आँखों में आंसू थे। मैंने उस सफ़र में ही ठान ली थी कि मैं कुछ बड़ा काम करूँगा, बहुत बड़ा आदमी बनूँगा।”दिलचस्प बात ये भी है कि अरविंद ने उस सफ़र में ये भी फैसला लिया था कि वे दुबारा बस में नहीं बैठेंगे। और जब अपने गाँव वापस जाएंगे तब अपनी खुद की कार में ही जाएंगे। दुःख-भरे मन, लेकिन बुलंद हौसलों के साथ चंडीगढ़ पहुंचे अरविंद ने नौकरी की तलाश शुरू की।अरविंद नौकरी पाने को इतना बेताब थे कि वे रैनबैक्सी कंपनी में हेल्पर की नौकरी करने को भी तैयार हो गए। चंडीगढ़ में जब अरविंद को ये पता चला कि दवाइयां बनाने वाली मशहूर कंपनी रैनबैक्सी में हेल्पर की ज़रुरत है तो वे उस लाइन में जाकर खड़े हो गए जहाँ दूर-दूर से आकर लोग नौकरी की उम्मीद में खड़े थे। लाइन में खड़े ज्यादातर लोग मजदूर थे या अनपढ़। लम्बे समय तक कतार में खड़े रहने के बाद जब इंटरव्यू के लिए अरविंद का नंबर आया तो मैनेजर दंग रह गया। हुलिया, रंग-रूप और बोलचाल की भाषा को देखकर मैनेजर को लगा कि अरविंद कंपनी में झाड़ू-पोछा लगाने, साफ़-सफाई करने का काम नहीं कर सकते। उन्हें लगा कि कोई बड़ी मजबूरी की वजह से वे हेल्पर की नौकरी पाने आ गए हैं। मैनेजर ने अरविंद को हेल्पर की नौकरी देने से साफ़ मना कर दिया। अरविंद ने भरोसा दिलाने की कोशिश की कि वे झाड़ू-पोछा लगाने का भी काम करेंगे, लेकिन मैनेजर को यकीन ही नहीं हुआ।दिलचस्प बात ये भी है कि अरविंद ने हेल्पर की इस नौकरी के लिए सिफारिश भी करवाई थी। जब सिफारिश करने वाले ने मैनेजर को फ़ोन कर अरविंद को नौकरी पर रखने को कहा तब जाकर मैनेजर राजी हुआ था। मैनेजर ने अरविंद से अपने सर्टिफिकेट लाकर देने और नौकरी पर लगने को कहा। खुशी से भरे मन के साथ अरविंद सर्टिफिकेट लाने वहां से चले आये। लेकिन, इसी बीच एक और बड़ी घटना हुई और इसी घटना ने अरविंद को कारोबार करने का रास्ता दिखाया।उन दिनों चंडीगढ़ में जॉब कंसल्टेंसी कंपनियां खूब खुली हुई थीं। अलग-अलग कंपनियों में लोगों को नौकरी दिलवाकर ये कंपनियां उनसे कमीशन लेती थीं। एक दिन अरविंद ने देखा कि कुछ बेरोजगार इसी तरह की एक कंपनी के दफ्तर के सामने हंगामा कर रहे हैं। अरविंद से रहा नहीं गया और उन्होंने हंगामे की वजह जानने की कोशिश की। इसी कोशिश में उन्हें पता चला कि उस कंपनी ने बेरोजगारों को नौकरी दिलवाने का भरोसा देकर उनके बड़ी रकम ऐंठ ली थी। लेकिन, कंपनी बेरोजगारों को नौकरी नहीं दिलवा पायी और नाराज़ लोग अपनी रकम वापस करने की मांग करते हुए हंगामा करने लगे थे। हंगामा कर रहे बेरोजगारों की आँखों में गुस्सा और पीड़ा को देखकर अरविंद का दिल दहल गया। वे खुद भी बेरोजगार थे और हालात को अच्छी तरह से समझते थे। उसी समय अरविंद ने बड़ा फैसला लिया। फैसला था – बेरोजगारों को नौकरी दिलाने में मदद करने का। अपनी खुद की जॉब कंसल्टेंसी कंपनी खोलने का। यानी फैसला था नौकरी न करने और नौकरी दिलवाने का कारोबार करने का। ये फैसला इस मायने से भी बड़ा और साहसी था कि अरविंद के परिवार और पुरखों में किसी ने भी कारोबार नहीं किया था। अरविंद के पिता नौकरी करते थे और उनके दादा ज्योतिषी थे। पुरखों ने कभी कोई कारोबार नहीं किया था।लेकिन, बेरोजगारों की दुर्दशा का अरविंद पर कुछ इस तरह असर हुआ कि उन्होंने बेरोजगारों को नौकरी पर लगवाने को ही अपने जीवन का सबसे बड़ा मकसद बना लिया। अरविंद कहते हैं, “उन दिनों कंसल्टेंसी कंपनियां नौकरी पर लगवाने से पहले ही बड़ी रकम वसूल लेती थीं। ये रकम बहुत ज्यादा होती थी। मैंने देखा था कि क़र्ज़ लेकर कई बेरोजगार ये रकम जुटाते थे। नौकरी न दिलवाने पर जब बेरोजगार ये रकम वापस मांगते थे तब कंपनी के मालिक उन्हें बहुत सताते थे। बेरोजगारों की मजबूरी और उनकी बुरी हालत देखकर मुझे बहुत पीड़ा हुई। तभी मैंने सोचा कि मैं अपनी खुद की कंपनी खोलकर बेरोजगारों की मदद करूँगा। मैंने सोचा कि मैं कम रुपये लेकर ही उन्हें नौकरी पर लगवाऊंगा।”अरविंद का इरादा नेक था, हौसले बुलंद थे और मन जोश से भरा था। लेकिन, उन्हें आगे आने वाली चुनौतियां का अहसास नहीं था। चुनौतियां और मुसीबतें बाहें फैलाए उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थीं। कामकाज शुरू करने के लिए अरविंद के पास रुपयों की किल्लत थी। उनके पास उस समय सिर्फ 1200 रुपये ही थे। लेकिन, इरादा इतना तगड़ा था कि उन्होंने इस रकम के साथ ही कामकाज शुरू किया। जितना कुछ उनके पास था सब कुछ कंपनी में लगा डाला। दिन-रात एक किये। खूब पसीना बहाया। कई सारी दिक्कतों को पार लगाने के बाद जब कामकाज शुरू हुआ तो नयी परेशानियां सामने आयीं। अरविंद ने जहाँ अपनी कंसल्टेंसी कंपनी का दफ्तर खोला था वहीं दूसरी और भी कंपनियों के दफ्तर थे। इन कंपनियों के मालिकों ने जब देखा कि अरविंद के पास कई सारे बेरोजगार जुट रहे हैं और उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ रही है तब उन्होंने अपनी बातों और हरकतों से अरविंद को परेशान करना शुरू किया। एक कंपनी के मालिक ने अरविंद का अपमान करने के मकसद से कहा – ‘अरे तुम तो गढ़वाली हो। यहाँ ये काम क्यों कर रहे हो? तुम्हें तो किसी होटल में वेटर का काम करना चाहिए या फिर सेना में भर्ती होना चाहिए।’ उन दिनों चंडीगढ़ के कई होटलों में गढ़वाल के लोग होटलों और रेस्तराओं में छोटे-मोटे काम किया करते थे। कई गढ़वाली सेना में भी थे। इसी तथ्य को आधार बनाकर उस कंपनी मालिक ने अरविंद का अपमान करने और उन्हें हतोत्साहित करने की कोशिश की थी। इस तरह की टोंट और दूसरे किस्म के भद्दे और अपमानजनक बातों का अरविंद पर कोई असर नहीं हुआ। वे बेरोकटोक अपने मकसद को कामयाब बनाने में जुटे रहे।जब अरविंद ने रात-दुगिनी और दिन चौगुनी तरक्की करनी शुरू की तब कुछ कंपनियों के मालिकों ने उन्हें अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर चंडीगढ़ से बाहर चले जाने की धमकी भी दी। इन कंपनी मालिकों ने अरविंद को ये कहते हुए धमकी दी कि – ‘तुम बाहरी हो और अगर यहाँ कारोबार करना बंद नही किया तो तुम्हारा बहुत बुरा हाल कर देंगे और तुम कहीं के नहीं रहोगे।’ नेस्तनाबूद कर देने की धमकियों का भी अरविंद पर कोई असर नहीं हुआ। वे अपने काम में ईमानदार थे, उनके इरादे बुलंद थे, पूरी लगन और मेहनत से बेरोजगारों की मदद कर रहे थे, उनके लिए डरने की कोई बात नहीं थी। मार्शल आर्ट सीखने का फायदा उन्हें चंडीगढ़ में कारोबार करने के दौरान भी मिला। मार्शल आर्ट ने अरविंद को शारीरिक और मानसिक तौर पर इतना मजबूत कर दिया था कि वे किसी से भी नहीं डरते थे। बदमाशों की धमकियों को वे हवा में उड़ा देते थे। उनकी ताकत, उनके ज़ज्बे और जोश के सामने सारे दुश्मन हार मानने को मजबूर हो जाते थे।अरविंद के दुश्मनों की संख्या के बढ़ने की वजह भी साफ़ थी। वे दूसरे राज्य से आये थे, चंडीगढ़ के लोगों के लिए बाहरी थे, उनके कारोबार करने का तरीका अलग था, बेरोजगारों के भरोसेमंद थे, और उनके बढ़ते कारोबार की वजह से दूसरों का कारोबार घट रहा था। यही बातें प्रतिद्वंद्वियों की आँखों में खल रही थीं। एक कारोबारी तो इतना परेशान और नाराज़ हुआ कि उसने अरविंद की कंपनी के एक कर्मचारी को अपना मुखबिर बना लिया। इतना ही नहीं अरविंद की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता को पूरी तरह से बर्बाद करने के मकसद से इस कारोबारी ने अपने मुखबिर के ज़रिये अरविंद के दफ्तर से बेरोजगारों के सारे सर्टिफिकेट और दूसरे दस्तावेज़ चोरी कर लिए।अरविंद को जब इस चोरी का पता चला तो उनके होश उड़ गए। सर्टिफिकेट के गायब होने का सीधा मतलब था उनकी प्रतिष्ठा को धक्का लगना। इतना ही नहीं सर्टिफिकेट न मिलने की हालत में बेरोजगारों के भविष्य के अंधकार से भर जाने का भय था। संकट की इस घड़ी में अरविंद ने सूझ-बूझ से काम लिया। वे सीधे पुलिस थाने गए और थानेदार से साफ़-साफ़ शब्दों में कह दिया कि सर्टिफिकेट न मिलने की हालत में वे कुछ भी कर सकते हैं। एक मायने में ये धमकी थी। अरविंद का गुस्सा सातवें आसमान पर था। आखें लाल थीं और शरीर आग-बबूला था। उन्होंने स्टेशन हाउस ऑफिसर से कह दिया – अगर सर्टिफिकेट नहीं मिले थे तो मैं मर जाऊँगा या फिर मार दूंगा।
ये बातें सुनकर थानेदार भी घबरा गए। उन्होंने अरविंद को भरोसा दिया कि सर्टिफिकेट वापस मिल जाएंगे। इस भरोसे के बाद अरविंद जब अपने दफ्तर लौटे तब उन्होंने देखा कि सारे सर्टिफिकेट अपनी जगह पर वापस थे। उस घटना की याद करते हुए अरविंद ने कहा, “मैं अपने आप को संभाल नहीं पा रहा था। जब मैं पुलिस स्टेशन से वापस दफ्तर लौट रहा था, मेरे आँख में आंसू थे। मैं अगर एसहेचओ को धमकी नहीं देता तो शायद मुझे सर्टिफिकेट नहीं मिलते और मेरा काम बंद हो जाता।”
अरविंद ने ऐसी ही दिलेरी कई जगह दिखाई और अपनी तरक्की में आने वाले रोड़ों को दूर किया। धीरूभाई अंबानी की कंपनी रिलायंस के एक दफ्तर में इसी तरह की दिलेरी ने अरविंद को बड़ा कारोबारी बना दिया था। हुआ यूँ था कि उन दिनों पंजाब में रिलायंस ने टेलिकॉम सेक्टर में भी अपना काम करना शुरू कर दिया था। जैसे ही इस बात का पता अरविंद को चला उन्हें लगा कि रिलायंस का काम मिल जाने से उन्हें बहुत फायदा होगा और उनका कारोबार तेज़ी से बढ़ेगा। अरविंद को रिलायंस से काफी उम्मीदें थीं। उन्हें लगता था कि वे रिलायंस के लिए सही लोग दिलवा सकते हैं और रिलायंस से काम मिलने पर वे जल्द ही बड़े कारोबारी बन जाएंगे। विश्वास और उम्मीदों से भरे मन के साथ अरविंद अपना कारोबारी-प्रस्ताव लेकर रिलायंस के स्थानीय दफ्तर पहुंचे। लेकिन, उनके प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया गया। अरविंद को धक्का लगा। लेकिन, उन्होंने अपने आप को संभाला और उनके प्रस्ताव को नामंजूर किये जाने की वजह जानने की कोशिश की। उन्हें पता चला कि उनकी कंपनी नयी और छोटी है और उसने पहले बड़ी कंपनियों के साथ काम नहीं किया है, इसी वजह से उनका प्रस्ताव खारिज किया गया है। जैसे ही अरविंद को उनके कारोबारी प्रस्ताव को नामजूर किये जाने की वजह पता चला वे वे गेट-क्रेश करते हुए रिलायंस के स्थानीय प्रभारी के चैम्बर में घुस गए। अरविंद ने रिलायंस के उस अफसर को ये बात याद दिलाई कि रिलायंस के संथापक धीरूभाई अंबानी भी कभी छोटे कारोबारी ही थे और अगर उन्हें उस समय बड़े लोगों ने बड़ा काम नहीं दिया होता तो रिलायंस आज इतनी बड़ी कंपनी नहीं होती। अरविंद ने रिलायंस के उस असफर को ये भी बताया कि उनकी कंपनी भले ही छोटी है लेकिन वो बड़े काम करने का माद्दा रखती है। पूरे जोशीले अंदाज़ में एंग्री यंग मैन की तरह अपनी बातें रिलायंस के उस अफसर के सामने रखने के बाद अरविंद अपने दफ्तर लौट आये। इसके कुछ दिनों बाद रिलायंस के दफ्तर से अरविंद को ये सूचना मिली कि उनका कारोबारी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया है। एक बार फिर से अरविंद की दिलेरी काम कर गयी। उनका जोशीला अंदाज़ रिलायंस को भी पसंद आया। रिलायंस का काम मिलना अरविंद के लिए बहुत बड़ी कामयाबी थी। इस कामयाबी के बाद उन्होंने और भी बड़ी-बड़ी कामयाबियां हासिल कीं। अरविंद बलोनी कहते हैं, “शुरू से ही धीरुभाई अंबानी मेरे आदर्श रहे हैं। उनकी कहानी से मुझे बहुत प्रेरणा मिली।”शायद इसी प्रेरणा का नतीजा था कि अरविंद बलोनी ने जॉब कंसल्टेंसी से शुरू किये अपने कारोबार को अलग-अलग क्षेत्रों में भी फैलाया। अरविंद ने रिटेल कारोबार, रियल एस्टेट, हॉस्पिटैलिटी और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में भी काम शुरू किया और खूब शोहरत और धन-दौलत कमाई। अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहीं उनकी कंपनियां टीडीएस ग्रुप के तहत कारोबार करती हैं। अरविंद ने अपने दादा और दादी के नाम पर ही अपनी कंपनियों का नामकरण किया है। अरविंद के दादा तारा दत्त और दादी सरस्वती के नाम से ही टीडीएस ग्रुप यानी तारा दत्त – सरस्वती ग्रुप को बनाया और बढ़ाया गया।जब दादा-दादी की बात शुरू हुई तब अरविंद ने एक किस्सा भी सुनाया। अरविंद ने बताया, “मेरे दादाजी तारा दत्त बहुत बड़े ज्योतिषी थे। उन्होंने ही मेरा नामकरण किया था। नामकरण के बाद हुए भोज समारोह में दादाजी ने कहा था – मुझे अपने इस पोते का नाम रखते हुए बहुत गर्व महसूस हो रहा है। ये मेरी खुशनसीबी है कि मैं इसका नाम रख रहा हूँ। ये लड़का आगे चलकर न सिर्फ अपने माँ-बाप और परिवार का नाम रोशन करेगा बल्कि पूरे गाँव का नाम अपने काम से रोशन करेगा। मेरा पोता बड़ा होकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा।”ये किस्सा सुनाते समय अरविंद बहुत भावुक हो गए थे। वे अपने दादा और दादी से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने उन्हीं के नाम से कंपनी बनाकर कारोबार किया और खूब नाम कमाया। महज़ 1200 रुपये से कारोबार शुरू करने वाले अरविंद अब 400 करोड़ रुपये के टीडीएस ग्रुप के मालिक हैं। टीडीएस ग्रुप अलग-अलग क्षेत्रों की बड़ी-बड़ी कंपनियों में मैन-पॉवर यानी श्रम-शक्ति प्रदान करता है। ये ग्रुप कर्मचारियों की भर्ती में भी बड़ी-बड़ी कंपनियों की मदद करता है। कंपनियों में कर्मचारियों से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करने में टीडीएस ग्रुप ने महारत हासिल कर ली है। टीडीएस ग्रुप बड़ी तेज़ी से रिटेल बिज़नस, रियल एस्टेट और हॉस्पिटैलिटी – होटल्स के कारोबार में भी तरक्की कर रहा है। शिक्षा के ज़रिये समाज-सेवा के काम को टीडीएस ग्रुप बड़े पैमाने पर कर रहा है। टीडीएस ग्रुप का कारोबार देश-भर में फैला हुआ है। देश के हर राज्य में टीडीएस ग्रुप की असरदार और दमदार मौजूदगी है। करीब पच्चीस हज़ार कर्मचारी देश के अलग-अलग हिस्सों में टीडीएस ग्रुप के लिए काम कर रहे हैं और लोगों को सेवाएं देते हुए कारोबार को लगातार बढ़ाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। टीडीएस ग्रुप की सेवाओं से लाभ उठाने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। बड़े ही फक्र और विश्वास भरी आवाज़ में अरविंद कहते हैं, “टीडीएस ग्रुप जल्द ही 400 करोड़ से 1000 करोड़ रुपये का ग्रुप बन जाएगा।”अरविंद के इस भरोसे का आधार उनकी टीम है। अरविंद ने कहा, “मेरी टीम बहुत ही शानदार है। टीम में अच्छे, ईमानदार, मेहनती, समर्पित और प्रतिभाशाली लोग हैं। मैं जो सपना देखता हूँ, उसे हकीकत में बदलने में मेरी टीम पूरी ताकत लगा देती है। मेरी वंडरफुल टीम, वंडर्स करने का माद्दा रखती है।” ये स्वाभाविक भी है कि जो शख्सियत रिलायंस, एयरटेल, डिश टीवी, गोदरेज, वीडियोकॉन, विप्रो, टाटा, हीरो ग्रुप, आदित्य बिड़ला ग्रुप, फिलिप्स, जैसी कई बड़ी और नामचीन कंपनियों को अच्छे, काबिल, प्रतिभासपन्न और मेहनती कर्मचारी दिलवाने में मदद करता है वो अपनी टीम को शानदार बनाएगा ही।अरविंद बलोनी की ज़िंदगी में कई सारे पहलू हैं जोकि बेहद रोचक हैं। अरविंद ने अपने उस संकल्प को भी पूरा किया जो उन्होंने ऋषिकेश से चंडीगढ़ आते समय सरकारी बस में लिया था। चंडीगढ़ को केंद्र बनाकर कारोबार करने वाले अरविंद ने जब खूब धन-दौलत कमा ली तब वे अपने गाँव लौटे। अपने संकल्प को पूरा करते हुए वे कार में अपने गाँव गए। कार भी ऐसी वैसी नहीं बल्कि; मर्सिडीज़ कार से वे अपने गाँव गए। गाँव में पहली बार ऐसा हुआ था जब मर्सिडीज़ कार आयी थी। दादा की वो भविष्यवाणी भी सच हुई थी जिसमें उन्होंने कहा था कि उनका पोता बड़ा आदमी बनेगा और घर-परिवार के साथ-साथ गाँव का नाम भी रोशन करेगा। बड़ी बात ये भी है कि अरविंद ने ऋषिकेश से चंडीगढ़ की उस पहली बस यात्रा के बाद फिर कभी भी बस में सफ़र नहीं किया।रोचक बात ये भी है कि अरविंद ने अपने परिवार से दो साल तक ये बात छिपाए रखी कि वे कारोबार कर रहे हैं। अरविंद को लगता था कि घर-परिवार वाले ये बात सुनकर घबरा जाएंगे कि वे कारोबार कर रहे हैं। अरविंद के परिवार में किसी ने भी कारोबार नहीं किया था और सभी ये मानते थे कि कारोबार बहुत जोखिमों से भरा होता है और कभी-कभी तो नुकसान इतना ज्यादा हो जाता है आदमी उससे उभर ही नहीं पाता और उसकी ज़िंदगी तबाह हो जाती है। अरविंद को इस बात का भी डर था कि उनके परिवारवाले उन्हें हतोत्साहित करेंगे और कारोबार करने से रोकेंगे। कारोबार में अपने पाँव जमा लेने के बाद ही अरविंद ने अपने परिवारवालों को ये बताया कि उन्होंने कारोबार को ही अपने जीवन का सबकुछ बना लिया है।अरविंद ने अपने जीवन में कई चुनौतियों का सामना किया है। लेकिन, उनकी खूबी इस बात में भी रही है कि वे दूसरों की परेशानी को भी अपना बनाकर उसे हल कर देते हैं। अरविंद के एक परिचित व्यक्ति एक कंपनी के लिए कोलकाता में टीवी सेट बनाते थे। कोलकाता में राजनीतिक कारणों से हालात कुछ इस तरह बने कि सारे कारखानों में मजदूरों ने हड़ताल कर दी। कारखानों में कामकाज ठप्प पड़ गया। अरविंद को जब इस बात का पता चला तो वे मदद के लिए स्वतः ही आगे आये। जब फैक्ट्री के मालिक ने अरविंद को देखा तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि एक नौजवान व्यक्ति फैक्ट्री में कामकाज दुबारा शुरू करवा सकता है। फैक्ट्री-मालिक की सारी उम्मीदें ख़त्म हो चुकी थी। अरविंद ने फैक्ट्री के मालिक को उन्हें ये काम सौंपने को कहा। चूँकि फैक्ट्री मालिक के पास कोई विकल्प नहीं था उन्होंने अरविंद को फैक्ट्री में फिर से टीवी बनाने का काम शुरू करवाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी। अरविंद के एक आह्वान पर कई लोग उनके साथ कोलकाता चलने को राजी हो गए। जितने कर्मचारियों की ज़रुरत थी उससे कहीं ज्यादा कर्मचारी जमा हो गए थे। सभी अरविंद के साथ चलने की जिद करने लगे थे। लोगों को न चलने के लिए मनाने में अरविंद को काफी समय लगा था। अरविंद जब अपने मजदूरों के साथ कोलकाता पहुंचे तो उन्होंने पाया कि हालात वाकई खराब हैं। फैक्ट्री में काम शुरू करने का मतलब था जान जोखिम में डालना। अरविंद के साथ आये मजदूर भी जान गए कि काम शुरू करने का मतलब मुसीबत मोल लेना था। लेकिन, अरविंद ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने सारे मजदूरों को इक्कठा किया और उनमें जोश भरने के मकसद से भाषण दिया। भाषण इतना शानदार था कि सभी मजदूरों में नए जोश का संचार हुआ और वे पूरी ताकत के साथ निडर होकर काम करने को राजी हो गए। अरविंद के साहस के सामने कोलकाता में मजूदर यूनियनों के बड़े-बड़े नेता भी पस्त हो गए। स्थानीय मजदूर नेता इतना तिलमिला गए कि उन्होंने अरविंद को ‘पंजाब से आया आतंकवादी’ कहना शुरू कर दिया। हर बार की तरह ही अरविंद ने अपने दुश्मनों की बातों को नज़रअंदाज़ किया और सिर्फ अपने काम और मकसद पर पूरा ध्यान दिया। अरविंद कहते हैं, “जब कोई मुझसे ये कहता है कि काम नामुमकिन है तब मेरा हौसला और भी बढ़ जाता है। मैं नामुमकिन कहे जाने वाले काम को चुनौती के तौर पर लेता हूं और नामुमकिन को मुमकिन न करने तक चैन से नहीं बैठता हूँ। अरविंद बलोनी मजबूत दिलवाले इंसान तो हैं ही उनमें नेतृत्व के गुण भी समाये हुए हैं। वे एक अच्छे वक्ता भी हैं और लोगों को अच्छे और बड़े काम करने के लिए प्रेरित भी करते रहते हैं। अरविंद एक ऐसे कारोबारी हैं जो दबंगई से जीत को आसान बना लेते हैं।अरविंद बलोनी डॉ अब्दुल कलाम की इस बात से भी बेहद प्रभावित है कि ‘सपने वे नहीं होते, जो सोते समय दिखते हों, बल्कि सपने तो वे होते हैं, जो इंसान को सोने न दे। सोते समय देखा जाने वाला सपना तो हमें याद भी नहीं रहता। पर जो सपने जागी आंखों से देखे जाते हैं, वे न केवल हमें याद रहते हैं, बल्कि वे हमें सोने ही नहीं देते।’ बड़े-बड़े सपने देखना और उन्हें साकार करने के लिए जी-जान लगा देना अब अरविंद बलोनी की आदत बन गयी है।धीरुभाई अंबानी की कामयाबी की कहानी से प्रेरणा लेकर साधारण से इंसान से करोड़ों रुपयों का कारोबार करने वाले कामयाब कारोबारी अरविंद बलोनी ये कहने से भी नहीं हिचकिचाते है कि “धीरुभाई से प्रेरणा लेकर कई लोग कामयाब बन गए हैं, अगर मैं कुछ लोगों के लिए धीरुभाई जैसा बन जाऊं तो मुझे बहुत खुशी होगी।”अरविंद अपनी बड़ी-बड़ी और नायाब कामयाबियों को श्रेय अपने परिवार को देने से नहीं चूकते। वे कहते हैं, “मेरी पत्नी अंजलि मेरी प्रेरणा हैं। वे ही मुझे आगे बढ़ते रहने के लिए लगातार प्रोत्साहित करती रहती हैं। जब कभी मुझे बिज़नेस में प्रॉब्लम आती है अंजलि मुझे मोटीवेट करती हैं। वे मेरी बहुत बड़ी ताकत हैं।” अरविंद और अंजलि के दो छोटे और प्यारे बच्चे हैं। बड़ा बेटा आर्यन 10 साल का है और बेटी अदिति 5 साल की हैं। अपने परिवार के साथ समय बिताते हुए अरविंद को खुशी तो मिलती ही है, साथ ही उनका उत्साह और विश्वास भी बढ़ता है।
Dr Arvind Yadav is Managing Editor (Indian Languages
udaydinmaan.co.in

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही भाजपा


deepak azad,watchdogpatrika
उत्तराखंड और अरूणांचल में कांग्रेसी सरकार को बर्खास्त कर सुप्रीम कोर्ट में मुंहकी खा चुकी भारतीय जनता पार्टी ने कोई सबक सीखा हो, उसके व्यवहार से ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता। जनता के जीवन से जुड़े सवालों को उठाने के बचाय उत्तराखंड में भाजपा जिस तरह की राजनीति कर रही है उससे वह खुदके पैरों पर ही कुल्हाड़ी चला रही है। अस्थायी राजधानी, देहरादून में उत्तराखंड विधानसभा के दो दिनी विशेष सत्र की शुरूआत भाजपा के हंगामे, शोर-शराबे के साथ हुई। भाजपा ने यह कहते हुए विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल और उपाध्यक्ष अनुसूया प्रसाद मैखुरी का विरोध किया कि उनके खिलाफ उस दिन ही अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया था जब इस संकट की शुरूआत हुई थी। भाजपा के विरोध को भांपते हुए स्पीकर ने खुदको पीठ से अलग करते हुए सबसे सीनियर  सदस्य नवप्रभात को पीठासीन अधिकारी का दायित्व सौंप दिया। भाजपा इससे भी सहमत नहीं हुई और संवैधानिक नियमों का हवाला देते हुए पीठासीन अधिकारी का चयन सदन द्वारा किए जाने पर जोर दिया। भाजपा की इस दलील से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन नियम-कानूनों की यह उलझाहट से आखिर भ्रष्टाचार, कुशासन और आपदा के कहर से जूझ रही उत्तराखंड की जनता को क्या हासिल होने वाला है? बेहतर होता भाजपा भ्रष्टाचार, कुशासन, और आपदा जैसे सवालों पर सरकार की घेराबंदी करती तो राजनीतिक तौर पर उसे भी और उत्तराखंड की जनता को भी कुछ फायदा होता। अगर सीएम हरीश रावत की घेराबंदी के लिए भाजपा लोकायुक्त को ही मुददा बनाती तो बेहतर होता। राज्य पिछले चार साल से बिना लोकायुक्त के ही चल रहा है, लेकिन वह असल मुददों की बजाय इस तरह हंगामा कर सीएम हरीश रावत के लिए ही आगे ही राह आसान बना रही है!

कश्मीरः हिन्दू व इस्लामिक जिहादियों के कुचक्र से बाहर आकर इन सवालों के जवाब तलाशिये


मुकेश त्यागी-
क्या कश्मीर, छत्तीसगढ, उत्तर-पूर्व, ओडिसा, झारखंड या किसी भी और राज्य में आम लोगों पर पुलिस-फौजी बूटों के दमन का विरोध करने का मतलब हिजबुल – लश्कर या किसी और किस्म के आतंकवाद का समर्थन करना है?
१९७८ में जब मकबूल बट्ट और अमानुल्ला खाँ ने जेकेएलएफ की स्थापना की थी तो मकसद कश्मीर और कश्मीरियों (मुसलमानों नहीं) को भारत और पाकिस्तान दोनों से ही स्वायत्त करना था और दोनों हिस्सों में ही तहरीक की शुरुआत की गई थी। आखिर कब और क्यों यह तहरीक इस्लाम और जिहाद से जुड गई? १९८६ में केन्द्र द्वारा चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर जीएम शाह की महाभ्रष्ट सरकार को लादना, १९८७ के चुनाव में की गई भारी धांधली और १९८८ में बिजली के बढे दामों के खिलाफ हुए बडे जनआंदोलनों पर की गई पुलिस गोलीबारी व कठोर दमन के समय शेष भारत के भी जनवादी लोगों की हमदर्दी कश्मीर के लोगों के साथ थी। लेकिन १९८९ में अफगानिस्तान-पाकिस्तान के प्रशिक्षित जिहादी कैसे इस तहरीक पर काबिज हो गये?
इसके बाद कश्मीरी स्वायत्तता का सवाल खत्म होकर इस्लामी राष्ट्र का सवाल हो गया और घाटी से पंडितों की सफाई की गई जिसमें कितनी हत्यायें और गिरिजा टिक्कू जैसे लोमहर्षक कांड ही अंजाम नहीं दिये गये बल्कि बुर्का न पहनने वाली और सिनेमा देखने वाली मुस्लिम लडकियों पर तेजाब डालने और नाक काटने तक के हमले हुए। यह भी सोचने लायक सवाल है कि उस समय राज्यपाल के तौर पर कश्मीर की सत्ता संभालने वाले संजय गांधी के पुराने गुर्गे और संघ के हीरो जगमोहन ने पंडितों के लिये कोई सुरक्षा मुहैया क्यों नहीं कराई?
जेकेएलएफ के बजाय नये उभरे कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ की इंटेलीजेंस-सैन्य एजेंसियों से रिश्तों और पैसे लेने के सवाल भी समय-समय पर उठते रहे हैं। अभी के मंत्री और पहले के जनरल वीके सिंह तो २०१३ में इन अलगाववदियों को सेना द्वारा पैसा देने की बात खुले आम कह चुके हैं। रॉ/आइबी के पूर्व मुखिया दुलत भी इन संबंधों के बारे में लिख चुके हैं, यहाँ तक कि पाकिस्तान में बैठे सलाहुद्दीन के बेटे का श्रीनगर मेडिकल कॉलिज में प्रवेश आइबी और वाजपेयी पीएमओ ने कराया था यह भी कह चुके हैं। तो क्या कश्मीर के अलगाववादी नेतृत्व के के हिस्से को भारत और पाकिस्तान की हुकुमतों में बैठे लोग अपनी राजनीतिक जरूरतों के लिये इस्तेमाल करते हैं जिससे चुनाव में फायदा उठाया जाये और वक्त जरूरत लोगों का ध्यान दूसरी समस्याओं से हटाया जा सके और उग्र राष्ट्रवाद का जुनून फैलाया जा सके?


यद्यपि राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का विचार एक उच्च जनतांत्रिक विचार है लेकिन क्या इसके नाम पर साम्प्रदायिक, मजहबी अंधता और महिलाओं पर तालिबानी विचार रखने वाली तहरीक का समर्थन किया जा सकता है? क्या पूरे दक्षिण एशिया में मेहनतकशों की एकता को तोडकर फासिस्ट ताकतों को मदद करने वाली शक्तियां क्या आत्मनिर्णय के नाम पर समर्थन की दावेदार हो सकती हैं? क्या लाल किले पर इस्लामी झंडा फहराने के नारे से कश्मीर की स्वयत्तता का कोई रिश्ता है? क्या भारत और पाकिस्तान दोनों के ही हुक्मरान इनका इस्तेमाल अपने देशों में शोषण और दमन चक्र को मजबूत करने के लिये नहीं कर रहे? और क्या दोनों ही अपने शासित कश्मीरी हिस्से में सैन्य दमन नहीं चला रहे?
क्या कश्मीर हो या बलूचिस्तान या भारत-पाकिस्तान के कोई भी अन्य क्षेत्र के लोग व्यापक मेहनतकश एकता और पूँजीवादी शोषण के खिलाफ संयुक्त लडाई के बजाय धार्मिक, इलाकाई या भाषाई उग्रवाद के चक्र में फँसकर आत्मनिर्णय का हक प्राप्त कर सकते हैं?
मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया हूँ लेकिन इतना कहना चाहता हूँ कि हिन्दू राष्ट्र या इस्लामिक जिहाद वाली दोनों जमातों के प्रचार में न फँसकर इन सवालों पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है।

बुधवार, 20 जुलाई 2016

नई शिक्षा नीति में हो, ठोस पहल


देव कृष्ण थपलियाल
  देश की हालिया शिक्षा नीति 1986 बनीं थी, जिस पर 1992 में विस्तार पूर्वक पुर्नविचार  किया गया,  पिछले करीब डेढ-दो दशकों से सर्व शिक्षा अभियान और 2009 में लागू शिक्षा के अधिकार कानून के माध्यम से सरकार नें देश की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लानें के लिए पुरजोर कोशिशें कीं, पर इन नियमों और प्रावधानो  से ऐसी कोई उपलब्धि हासिल हो सकीं हो, जिससें शिक्षा व्यवस्था को नया आयाम मिला हो, कहा नहीं जा सकता ? हालात ये रहे, की अनेक राज्य आरटीआई के लागु करनें के कई वर्षों बाद भी उसके तमाम प्रावधानों से आज भी सहमत नहीं हैं, अपितु उन्हें अपनें यहॉ इसे लागू करनें से भी बचते रहे, विद्याार्थियों को फेल न करना, इस कानून का ऐसा पहलू है जिससे शैक्षिणिक संस्थानों में न केवल नीरसता ही फैल रही बल्कि अच्छी शिक्षा के प्रति भी छात्रों और शिक्षकों का मोह भी भंग हो रहा है, शिक्षा-प्रतियोगिता ही ऐसा उपकरण हैं, जिससे भावी नागरिकों को तराशा जाता हैं, उनमें व्याप्त तमाम तरह के कषाय-कल्मषों को धोया/साफ किया जाता है, छात्रों में नवीन जानकारियों के साथ सजगता और सक्रीयता उत्पन्न  होती है, तथा अच्छे भविष्य के लिए बच्चे मानसिक रूप से भी तैयार होते हैं, उनमें जोखिम लेंनें की प्रवृत्ति का भी विकास होता है।  इसलिए होंना तो ये चाहिए की प्रत्येक माह विद्यालय में परिक्षाओं का आयोजन हो, और सालभर में इन्हीं अंको के ऑकलन के आधार पर बच्चे को अगली कक्षा में दाखिला दिया जाय। इससे बच्चे परिक्षाओं के प्रति अभ्यस्त भी होगें, और निडर भी, साथ ही पढाई के प्रति उसमें ललक भी जागेगी। लेकिन इन प्रावधानों के तहत परीक्षाओं को ही समाप्त कर दिया गया, तो उदासीनता तो आयेगी ही ? जिसका नतीजा पिछले पॉच वर्षों की सर्व शिक्षा अभियान के रिर्पोट से झलकता है, इस राष्ट्रीय कार्यक्रम पर 1,15,625 करोड रूपये बहाये गये, लेकिन 2014 की वार्षिक स्टेटस रिर्पोट के अनुसार जो बातें सामर्नें आइं हैं, वे चौंकानें वालीं हैं, कक्षा-तीन के केवल एक चौथाई  छात्र कक्षा-दो की किताबें ठीक तरह से पढ पाते हैं, गणित विषय में कक्षा -तीन के एक चौथाई छात्र 10 से 99 के बीच की संख्या को पहचान नहीं पाते। अतः इन नीतियों से शिक्षा व्यवस्था का तो भला नहीं हो पाया, पर उल्टा असंतोष जरूर पनप रहा है ? असल में स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी हम देश की शिक्षा नीति को व्यवस्थित नही पाये, नहीं विद्यालय/ शिक्षालयों में इतना आकर्षण पैदा कर पाये की विद्यार्थी वहॉ स्वयं ही खिंचा चला आये ? भारत जैसे देश में जहॉ के क्षेत्र की एक लम्बी पंरपरा रही उसका ये हश्र चिंतित करनें वाला है, विद्यार्थियों के शिक्षा ग्रहण अभी भी उबाउ, थकाउ और नीरस कार्य बना हुआ है,। सन् 1924 में गाधीं जी नें ’हरिजन’ में जो सवाल उठाये थे 90 वर्षों के बाद भी वे ज्यों के त्यों हैं, कहीं शिक्षक, कहीं भौतिक संसाधन नही ंतो कहीं शिक्षकों और अभिवाहकों में अच्छे तालमेल का नितांत अभाव दिखता है, हालाॅिक आजादी के बाद शिक्षा व्यवस्था को सुव्यवस्थित करनें के नाम पर समय-समय पर अनेक आयोंगांे और समितियॉ का तो निर्माण हुआ पर उनके नतीजे फिर वही ढाक के तीन पात के समान रहे। आज भी विद्यालयों में योग्य शिक्षकों के साथ-साथ भौतिक संसाधनों का नितांत अभाव बना हुआ है, शिक्षकों और अभिवाहकों के बीच में अच्छी शिक्षा के प्रति न कोई संवाद है न ही कोई इच्छा शक्ति केवल किताबी ज्ञान के आधार पर परीक्षा पास करना/कराना ही अभिवाहक/अध्यापक का ’लक्ष्य’ मात्र तक सीमित है।
इन तमाम अडचनों के बाद अब नई शिक्षा नीति में व्यापक सुधारों के लिए गठित टीएसआर सुब्रमण्यम कमेटी की सिफारिशों पर गौर फरमानें पर लगता है की देश भर में शिक्षा व्यवस्था के निरंतर गिरते स्तर को लेकर कमेटी नें बखुबी चिंतन/मनन किया है, यह निश्चित रूप से अच्छी खबर है, सुधारीकरण के नाम पर कमेटी नें जो तर्क/तथ्य प्रस्तुत किये हैं वे स्वागत योग्य है और उन्हें ईमानदारी से लागू किया जानें की जरूरत है। यह समय की आवश्यकता है, की शिक्षा में नवाचार ज्यादा से ज्यादा विकसित किया जाय, जिस तेजी से आधुनिक समाज बदला है/बदल रहा है, टैक्नोंलॉजी और आईटी का विकास हुआ, उसी अनुरूप हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था में भी गुणात्मक परिवर्तन की गुंजाइश है। महज कुछ डिग्रियों और प्रोफेशनल्स को तैयार करनें की एकाकीं प्रवृत्ति पर तुरंत रोक लगनीं चाहिए, पैसा बनानें की गरज से शिक्षा के बाजार को खडा करना कुछ समय के लिए के लिए सुखद लग सकता है ? जिसमें कुछ लोंगों को रोजगार मिले,  कुछ को बाजार और कुछ की स्तरीय जीवन जीनें की लालस पूर्ण हो, सरकार और उसके नुमांईंदे जिस पर अपनीं वाह-वाही लुटा सकंे आदि-आदि, पर इतनें भर से अच्छे राष्ट्र, अच्छे नागरिक और सभ्य समाज की परिकल्पना करना कतईं संभव नहीं है,। आज जरूरत है समग्र विकास की, बाहरी तौर पर देंखें तो तमाम शैक्षिणिक संस्थानों से निकले नौजवानों में पैसे कमानें की हुनर और आधुनिकता से युक्त विलासी व उन्मुक्त जीवनशैली का तो खुब विकास हो रहा है, परन्तु वे प्राचीन भारतीय जीवन मुल्यों और जीवन पद्वति से लगातार पिछडते जा रहे हैं, जीवन के वास्तविक अर्थों से दूर हो रहे हैं/बिखर रहे हैं, उनका सामाजिक, पारिवारिक और आध्यात्मिक जीवन का विकास ना के बराबर है, सहनशीलता, समायोजन की क्षमता का विकास न होंनें के कारण उनका जीवन नितांत ऐकाकीं, अहंकारी और स्वार्थपूर्ण अर्थों में जिया जा रहा है, जिसके कारण निराशा, तनाव और आशंकाऐं उन्हें अंदर ही अंदर रूग्णावस्था तक पहुॅचा रही है, अब सवाल उठता है की क्या आधुनिक शिक्षा के मंदिरों में ऐसे अर्द्वक्षिप्त/ अपंग नागरिक तैयार  होते है ? शायद हॉ अधिकारिक रूप से नही ंतो व्यवहारिक रूप से इसे स्वीकार करना ही पडेगा, देश की युवा पीढी आज जिस दौर से गुजर रही है उससे तो यही आभास मिल रहा है। शिक्षा ग्रहण करना अथवा डिग्री प्राप्त करनें वाले युवाओं के भीतर विनयशीलता की जगह अहंकार  का द्योतक बन गया है,  वे छोटे-मोटे काम-धंधे को हाथ में लेनें को तौहिन समझते हैं, यही कारण है की आज हर पढे-लिखे नौजवान का सपना केवल सरकारी नौकरी प्राप्त करना अथवा ऐसी नौकरी की तलाश तक सीमित है जहॉ उसे हाथ-पैर न चलानें पडे, और मोटी पगार बैठे-बैठे भी मिले। भौतिक संसाधन युक्त जीवन प्राप्त करना, मानों इसीलिए उसनें शिक्षा ग्रहण की हो ? माना की सम्मानजनक रोजगार/जीविका व रहन-सहन प्राप्त करना भी शिक्षा का उद्देश्य है, लेकिन इसका मतलब ये की पैसे कमानें की गरज से ही शिक्षा का मुल्य है ? जो नौकरी पा गये उनकी तो बल्ले-बल्ले, लेकिन जो इससे वंचित रह गये वे दीन-हीन अवस्था में जीवन यापन करनें को अभिशप्त हैं। गॉधी जी नें कहा था ’’जो लोग शारीरिक श्रम नहीं करते वे चोर हैं,’’ यानी बिना शारीरिक श्रम किये बगैर खानें वाले आज के युवाओं के लक्ष्य हैं। तब ऐसे देश का भविष्य क्या होगा ?, इसे समझा जा सकता है। देश में बढ रहीं तमाम तरह की हिंसा, अपराध, अवसाद, आतंकवाद और बेईमानी के पीछे ’’अच्छी और मुल्यवान शिक्षा का नितांत अभाव’’ जिम्मेदार है, इन अपराधों को रोकनें के लिए देश संसद और विधान सभाओं नीति नये कानून रोज बनाये जा रहे हैं पर स्थिति रूकनें के बजाय  तीव्र गति से बढती जा रही है।  आज देश में सुरसा की तरह बढे तमाम प्रकार के अपराध के लिए हमारी एकाकी शिक्षा व्यवस्था की ही जिम्मेदार है ? बालकों के मन में ऐसी जानकारियों का नितांत अभाव जिससे वे मानवीय गुणों प्रेम, सहिष्णुता, भाई-चारा और चाारित्रिक गुणों का विकास कर सकें ? नहीं विद्यालय परिसरों में इस तरह की कोई व्यवस्था है, जिससे उनमें  इस तरह के गुण विकसित हो सके ? मुझे याद है अपनी प्राथमिक शिक्षा के दौरान गॉव की जिस पाठशाला में मैं पढता था, वहॉ मुझे पठन-पाठन की सामग्री के अलावा अपनें लगाये पेड-पौधों के लिए खाद-पानीं का इंतजाम भी करना पडता था, जिसके लिए मैं और मेरे सहपाठी गाय के गोबर के बडे-बडे पालीथीन भरे थैले साथ में ले जाते थे, वहॉ क्यारियॉ थी, जिनमें हम अनेक तरह की साग-भाजी और फूलों और पेड-पौंधों को उगाया करते थे, जो हमें  मानसिक शान्ति के अलावा एक नैसर्गिक आनंद की अनुभूति भी करा देते थे, जो विद्यालय को उत्सव सा माहौल प्रदान करते थे, ऐसे कृत्य निश्चित रूप से सृजनात्मक प्रवृत्ति को बढावा देते हैं, साथ ही विद्यालयों में विभिन्न प्रकार खेंलों से भी बच्चों के बीच आत्मीयता और सहकार को बढावा मिलता था, कब्बड्डी, खो-खो जैसे खेल जहॉ हमारे बीच आमोद -प्रमोद के साधन थे, वहीं वे हमारी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता के विकास के लिए भी आवश्यक होते थे।
अब सवाल उठता है की जिन शिक्षकों के भरोसे हमारी युवा पीढीं को सुशिक्षित और सुसंस्कारवान बनानें का जिम्मा हैं, क्या वे स्वयं भी इस योग्य हैं ? बात सीधे शिक्षकों की भर्ती से है, उत्तराखंण्ड में पिछले कई  वर्षों से शिक्षकों की भर्ती का अभियान जोंरों पर है, प्राथमिक से लेकर उच्च शैक्षिणिक संस्थानों में अस्थाई/स्थाई शिक्षकों की नियुक्तियॉ लगभग हर साल हो रहीं हैं,अस्थाई तौर पर नियुक्त शिक्षक युनियन बनाकर सरकार पर जल्द से जल्द स्थाईकरण के लिए दबाव बना रहे हैं, जो उनका हक भी है,निरंतर अस्थाई तौर पर रखे वाले अपनीं स्थाईकरण के बारे में ज्यादा चिंतित हैं, बनिस्बत अध्यापन के।  लेकिन सरकार की तरफ से नियुक्त इन शिक्षकों के कार्यों को जॉचनें-परखनें के लिए कोई साधन/एजेंन्सी का नितांत अभाव है, जे सही शिक्षकों की कार्यप्रणाली का सही-सही मुल्यांकन कर सके ?  जब पानी सर से उपर चला जाता है तो सरकार ऐसी अदूरदर्शी नीति की चाल चलती है जिसे समझना संभव नहीं है।   शिक्षक नियमित तौर पर स्कूल में उपस्थित रहे, यह देखनें का सरकार की जिम्मेदारी है, न की पटवारी जी की। देहरादून के जिला कलैक्टर साहब नें जौंनसार बाबर के सुदूरवर्ती क्षेत्रों के स्कूलों के शिक्षकों की नियमित उपस्थिति देखनें के लिए यही आदेश निर्गत किया है ? पटवारी जी जैसे गैर विभागीय कर्मचारी हैं, और वे जिस काम लिए नियुक्त हैं साहब उस काम का क्या होगा ?  बायोमैट्रिक मशीन लगाकर अध्यापकों की हाजिरी जॉचनें का काम उनकी विश्वसनीयता पर सदेंह जताना,और उनके आत्म सम्मान को ठेस पहुॅचान के अलावा कुछ नहीं है, अच्छा होता सरकार पहले ही ऐसी ऐंजेंन्सी बिल्डअप कर देती जिससे अध्यापन करनें/रूची रखनें वाले शिक्षकों को नियुक्त कर लिया जाता ? जिससे आज न तो शिक्षकों पर कडी नजर रखनें की जरूरत होती न अध्यापकों की गरिमा को ठेस पहुॅचाती ? असल में ये सरकार की शिक्षा के प्रति गंभीरता को दर्शाता है, या खोखले अधिकारियों का अन्ध अहंकार है, जिनके पास शिक्षा के लिए न कोई ज्ञान है, न कोई विचार, बस कुछ घीसी-पीटी बातों को दोहरा कर वे अपनें अहं की संतुष्टी कर लेते हैं ?  
 टीएसआर सुब्रमण्यम कमेटी नें शिक्षकों की गुणवत्ता को लेकर सवाल खडे किये हैं, महज बी0एड0/पी0एच0डी0 धारकों को पात्र मानकर शिक्षक बनानें का विरोध किया है, अतः कमेटी की इस बात को समझनें की जरूरत है, आज के बदलते परिवेश में कुछ सच्चाईयों को जान लेंना आवश्यक है, ’बडी से बडी डिग्री पा लेंना अच्छे अंकों से पास हो जाना’ एक बात है, सच्चाई यह भी है की देश की गली-गली में शिक्षा के नाम पर खुली बडी से बडी दुकानें चल रहीं हैं, जो आपको मुहॅ मॉगीं कीमत पर डिग्री उपलब्ध करानें को तैयार बैठे हैं, क्या वाकई आप इन संस्थानों सें गुणवत्तापूर्ण  शिक्षा की उम्मीद लगाये बैठे हैं ? अपना अनुभव तो जरा भी उम्मीद नहीं जगाता ? जिस तरह से दूसरे-दूसरे राज्यों के ऐंजेंण्ट ग्राहकों को आकर्षित करते हैं, और उन्हें अपनें यहॉ दाखिला दिलवाते हैं और उनसे मोटी रकम वसुलते हैंं, उससे तो क्वालिटी ऐजुकेशन की बात करना सिवाय मुर्खता के कुछ नहीं कहा जा सकता ? इसीलिए महज कुछ डिग्रियों और अंकों के आधार पर शिक्षकों की नियुक्त करना कहीं से भी तर्क संगत नजर नहीं आता ? जरूरी यह की शिक्षक बननें वाले के अंर्तमन में क्या वे तत्व हैं, जिससे पूर्ण वह शिक्षक बन सके ? दुर्भाग्यवश आजादी के बाद देश में ऐसी कोई ऐंजेन्सी का निर्माण ही नहीं हुआ जो इन सब तत्थों पर गैर कर करे, अच्छी बात ये है की सुब्रमण्यम कमेटी नें स्कील डवलपमैंट की बात की है, शिक्षक भर्ती के समय इन सब तत्यों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
देश के तमाम ठीक-ठाक शैक्षिणिक संस्थानो (प्राथमिक से लेकर उच्च तक) में ’मैरिट लिस्ट’ के आधार पर  प्रवेश देनें की प्रवृत्ति निःसन्देह खतरनाक प्रतिस्पर्धा की ओंर इशारा कर रही है, आजकल तमाम विश्वविद्यालय में यही नियम अपनाया जा रहा है, दिल्ली विश्वविश्वविद्यालय के तमाम परिसरों में शत-प्रतिशत अंकों की मॉग से छात्रों और अभिवाहकों के माथे पर बल पडना स्वाभाविक है, कम अंकों वाले छात्रों को प्रवेश लेंना एक समस्या है, उन्हें अच्छे शैक्षिणिक संस्थान नहीं मिलेंगें, उनका दोष मात्र इतना है की विगत परीक्षा में उन्हें अपेक्षित अंक नहीं मिल पाये ? अब सवाल उठता है कि इस बात की क्या गारण्टी है, कि अग्रिम कक्षाओं में भी बच्चा अच्छे अंक नहीं पा सकता ? हो सकता है की अग्रिम कक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन करे, और ऐसा होता भी है ? दूसरी तरफ उन शैक्षिणिक संस्थानों की ऐसी नीति क्या है कि जिससे वे केवल और केवल अच्छा ही माल भरेंगें ? क्या वे अपनें आप को दुकान साबित करना चाहेंगें ? जी हॉ यही देश की शिक्षा नीति है, जहॉ उच्च अंक प्रतिशत वालों को ही मान्यता मिलेगी ? लेकिन एक सुझाव जरूर है की एक बेहतर नागरिक नौकरशाह, राजनीतिज्ञ अथवा अन्य किसी भी पेशा अपनानें वाले के लिए जरूरी है कि उसके अंदर मानवीय और उच्च मुल्यों का होंना। और इसके लिए जरूरी है,शिक्षा नीति में समग्रता विकास ।
नई शिक्षा नीति में ठोस पहल की दरकार है, आशा है की  टीएसआर सुब्रमण्यम कमेटी इस पर गहनता से विचार करेगी।